सरना धर्म कोड पर प्रधानमंत्री की चुप्पी: आदिवासियों की उपेक्षा या राजनीतिक रणनीति?

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सरना धर्म कोड पर प्रधानमंत्री की चुप्पी: आदिवासियों की उपेक्षा या राजनीतिक रणनीति?

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सत्या पॉल की कलम से ✒️

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का झारखंड दौरा राजनीतिक और विकास के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण रहा। 15 सितंबर को झारखंड में टाटा-पटना वंदे भारत एक्सप्रेस का उद्घाटन और विभिन्न योजनाओं का शिलान्यास करते हुए प्रधानमंत्री ने राज्य के विकास को गति देने की कोशिश की। इस मौके पर उन्होंने विपक्षी दलों पर तीखा हमला भी किया, खासकर बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे को लेकर, जो आदिवासियों के अधिकारों को प्रभावित कर रहे हैं। लेकिन इस दौरे में एक महत्वपूर्ण मुद्दा जिसकी पूरी तरह से अनदेखी की गई, वह था आदिवासियों द्वारा लंबे समय से की जा रही “सरना धर्म कोड” की मांग। यह खामोशी कई सवाल खड़े करती है, खासकर तब जब मंच पर बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा और चंपई सोरेन जैसे झारखंड के बड़े आदिवासी नेता मौजूद थे, लेकिन किसी ने भी इस मुद्दे पर चर्चा नहीं की।

यह चुप्पी न केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है, बल्कि आदिवासी समाज के प्रति सरकार की प्राथमिकताओं और नीतियों पर भी सवाल खड़ा करती है। सरना धर्म कोड आदिवासी समुदाय की एक महत्वपूर्ण मांग है, जिसका मकसद उनके धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को मान्यता देना है। तो फिर क्यों प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी? यह सवाल झारखंड के आदिवासियों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है।

सरना धर्म कोड: एक परिचय

सरना धर्म कोड की मांग झारखंड और देशभर के आदिवासी समुदायों द्वारा लंबे समय से की जा रही है। सरना धर्म, प्रकृति की पूजा पर आधारित एक धार्मिक परंपरा है, जिसका पालन देश के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले आदिवासी समुदाय करते हैं। इसका केंद्र बिंदु प्रकृति की आराधना है, और यह मुख्यतः पेड़ों, पहाड़ों, नदियों और अन्य प्राकृतिक तत्वों को पूज्य मानता है।

वर्तमान में, जनगणना में आदिवासियों को धार्मिक वर्गीकरण के लिए हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख आदि धर्मों में शामिल किया जाता है। सरना धर्म को मानने वाले आदिवासी चाहते हैं कि उनके लिए एक अलग धर्म कोड दिया जाए, जिससे उनकी धार्मिक पहचान को एक औपचारिक मान्यता मिले। यह न केवल उनकी धार्मिक पहचान को संरक्षित करेगा, बल्कि उनके सांस्कृतिक और सामाजिक अधिकारों की सुरक्षा में भी मदद करेगा।

राजनीतिक परिदृश्य और सरना धर्म कोड

सरना धर्म कोड का मुद्दा सिर्फ धार्मिक पहचान तक सीमित नहीं है, यह एक गहरा राजनीतिक विषय भी है। झारखंड में आदिवासी समुदाय की आबादी का एक बड़ा हिस्सा है, और वे राज्य की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) और कांग्रेस जैसे क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों ने सरना धर्म कोड के समर्थन में अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है। जेएमएम के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कई मौकों पर केंद्र सरकार से इस कोड को लागू करने की मांग की है।

बावजूद इसके, भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने इस विषय पर अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। 2021 में झारखंड विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास कर केंद्र सरकार से सरना धर्म कोड” को लागू करने की मांग की थी, लेकिन इस पर कोई कार्यवाही नहीं की गई। ऐसे में जब प्रधानमंत्री मोदी झारखंड दौरे पर आते हैं और आदिवासी हितों की बात करते हैं, तो यह उम्मीद की जाती थी कि वे इस प्रमुख मुद्दे पर कुछ बोलेंगे। लेकिन उनकी चुप्पी ने आदिवासी समाज में असंतोष और सवालों को जन्म दिया है।

प्रधानमंत्री की चुप्पी के कारण

प्रधानमंत्री की इस चुप्पी के पीछे कई संभावित कारण हो सकते हैं। पहला, यह हो सकता है कि भाजपा इस मुद्दे को लेकर अभी कोई स्पष्ट नीति नहीं बनाना चाहती हो, क्योंकि यह एक संवेदनशील विषय है जो धर्म, जाति और राजनीति से गहराई से जुड़ा है। भाजपा के लिए हिन्दू मतदाताओं का एक बड़ा आधार है, और सरना धर्म कोड को स्वीकार करने से उनके मतदाताओं का एक हिस्सा नाराज हो सकता है। इसके अलावा, सरना धर्म कोड को मान्यता देने से देश के अन्य आदिवासी समुदायों में भी इसी तरह की मांगें उठ सकती हैं, जिससे केंद्र सरकार पर अतिरिक्त दबाव बन सकता है।

दूसरा कारण यह हो सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी का दौरा मुख्य रूप से विकास और बुनियादी ढांचे से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित था, और उन्होंने सरना धर्म कोड को राजनीतिक रूप से जोखिम भरा मुद्दा मानते हुए इससे बचने का निर्णय लिया हो। हालांकि, यह रणनीति आदिवासी मतदाताओं को नाराज करने का कारण बन सकती है, खासकर तब जब झारखंड में आने वाले वर्षों में चुनाव होने वाले हैं।

आदिवासी नेतृत्व की भूमिका

प्रधानमंत्री के इस कार्यक्रम में झारखंड के प्रमुख आदिवासी नेता, जैसे बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, और चंपई सोरेन भी उपस्थित थे। इन नेताओं ने भी सरना धर्म कोड के मुद्दे पर कोई स्पष्ट बयान नहीं दिया। यह स्थिति आदिवासी नेतृत्व की भूमिका और उनकी राजनीतिक प्राथमिकताओं पर सवाल उठाती है। क्या ये नेता वास्तव में अपने समुदाय के हितों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, या वे पार्टी की राजनीति के आगे झुक रहे हैं? आदिवासी समाज के बीच यह सवाल गहराता जा रहा है।

अर्जुन मुंडा, जो केंद्रीय मंत्री हैं और भाजपा के आदिवासी चेहरे माने जाते हैं, ने भी इस मुद्दे पर कोई ठोस रुख नहीं अपनाया है। इससे आदिवासी समाज में यह भावना उत्पन्न होती है कि उनके अपने नेता भी उनकी मांगों को लेकर संवेदनशील नहीं हैं।

आदिवासी समुदाय की नाराजगी

सरना धर्म कोड की मांग आदिवासी समुदाय के लिए उनकी पहचान, धर्म और संस्कृति की मान्यता से जुड़ा मुद्दा है। जब इस पर प्रधानमंत्री ने कुछ नहीं कहा, तो इससे झारखंड के आदिवासी समुदायों के बीच यह संदेश गया कि केंद्र सरकार उनकी मांगों को गंभीरता से नहीं ले रही। आदिवासियों के बीच इस मांग को लेकर भावनाएं बहुत गहरी हैं, और वे इसे अपनी पहचान और अस्तित्व की रक्षा के रूप में देखते हैं।

सरना धर्म कोड न केवल एक सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकार है, बल्कि यह आदिवासियों के लिए सामाजिक न्याय का सवाल भी है। यह उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को संरक्षित करने और बाहरी प्रभावों से अपनी संस्कृति को बचाने के लिए महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री की चुप्पी ने आदिवासियों को यह महसूस कराया कि उनकी मांगों को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है, जो उनके और सरकार के बीच के संबंधों को कमजोर कर सकता है।

निष्कर्ष: राजनीतिक या धार्मिक रणनीति?

प्रधानमंत्री की सरना धर्म कोड पर चुप्पी को विश्लेषित करते हुए यह कहा जा सकता है कि यह एक राजनीतिक रणनीति का हिस्सा हो सकती है। भाजपा की राजनीति अक्सर धर्म और सांस्कृतिक पहचान के इर्द-गिर्द घूमती है, और आदिवासी धर्म कोड को मान्यता देना उनकी राजनीतिक रणनीति के साथ सीधे मेल नहीं खाता। संभव है कि सरकार इस मुद्दे को टालने या इसे कम महत्व देने की कोशिश कर रही हो, ताकि किसी बड़े राजनीतिक विवाद से बचा जा सके।

हालांकि, आदिवासियों की यह मांग केवल एक धार्मिक मांग नहीं है; यह उनकी पहचान, संस्कृति, और उनके सामाजिक अस्तित्व से जुड़ा है। सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह इस मुद्दे को केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से न देखे, बल्कि आदिवासियों की संवेदनाओं और उनकी सांस्कृतिक धरोहर को समझने का प्रयास करे। अगर सरना धर्म कोड की मांग को गंभीरता से नहीं लिया जाता, तो इससे आदिवासी समुदायों में और अधिक असंतोष पनप सकता है, जो आने वाले चुनावों में राजनीतिक नुकसान का कारण भी बन सकता है।

सरना धर्म कोड आदिवासी समाज के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, और इसे अनदेखा करना सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो सकता है।

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