सत्या पॉल की कलम से।
भारत में शिक्षा हमेशा से ही एक महत्वपूर्ण विषय रहा है। भारतीय समाज के विकास और प्रगति के लिए शिक्षा की आवश्यकता को हमेशा से प्राथमिकता दी गई है। 2014 के बाद, जब भारत में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार सत्ता में आई, तब से शिक्षा के क्षेत्र में कई नीतिगत बदलाव देखे गए। इन बदलावों का प्रभाव शिक्षा के स्तर और उसकी लागत पर पड़ा है। इस संपादकीय में हम 2014 के बाद शिक्षा के गिरते स्तर और बढ़ती महंगाई का विश्लेषण करेंगे, साथ ही भाजपा सरकार के एजेंडा पर भी चर्चा करेंगे।
शिक्षा का गिरता स्तर
2014 के बाद, कई रिपोर्ट्स और विशेषज्ञों के अनुसार, भारत में शिक्षा के स्तर में गिरावट देखी गई है। इसके कई कारण हो सकते हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं :-
1. शिक्षकों की कमी और गुणवत्ता : सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षकों की कमी एक बड़ी समस्या है। 2014 के बाद कई राज्यों में शिक्षकों की भर्ती में कमी आई है, जिसके कारण कई स्कूलों में छात्र-शिक्षक अनुपात बिगड़ गया है। साथ ही, जो शिक्षक भर्ती किए गए हैं, उनकी प्रशिक्षण और गुणवत्ता पर भी सवाल उठे हैं। शिक्षकों की ट्रेनिंग के लिए आवश्यक संसाधनों की कमी ने शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित किया है।
2. इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी : ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में स्कूलों और कॉलेजों का बुनियादी ढांचा कमजोर है। कई जगहों पर स्कूलों में न तो पर्याप्त कक्षाएँ हैं और न ही मूलभूत सुविधाएँ। ऐसे में छात्रों की पढ़ाई पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
3. शिक्षा नीति में बदलाव : 2020 में नई शिक्षा नीति (NEP) को लागू किया गया, लेकिन इसका प्रभाव अभी तक पूरी तरह से महसूस नहीं किया जा सका है। हालांकि इस नीति का उद्देश्य शिक्षा को अधिक समावेशी और आधुनिक बनाना था, लेकिन इसके लागू करने की प्रक्रिया धीमी रही है। शिक्षण संस्थानों में यह नीति पूरी तरह से कैसे प्रभावी होगी, यह स्पष्ट नहीं है।
4. डिजिटल शिक्षा की चुनौतियाँ : 2014 के बाद से डिजिटल शिक्षा को बढ़ावा देने के प्रयास हुए हैं, लेकिन देश के अधिकांश हिस्सों में इंटरनेट की पहुंच और डिजिटल उपकरणों की कमी के कारण इस प्रणाली का लाभ सभी तक नहीं पहुंच सका है। ग्रामीण और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के छात्रों को ऑनलाइन शिक्षा का लाभ कम मिल पाया है, जिससे शिक्षा के स्तर में असमानता बढ़ी है।
शिक्षा का महंगा होना
शिक्षा की महंगाई एक और गंभीर मुद्दा है, जो 2014 के बाद और भी बढ़ गया है। इसका मुख्य कारण निजीकरण और शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी अनुदान की कमी है। आइए इसके कारणों पर विस्तार से नज़र डालते हैं :-
1. निजीकरण का प्रभाव : 2014 के बाद से शिक्षा के क्षेत्र में निजी संस्थानों की संख्या में वृद्धि हुई है। सरकार ने शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा दिया है, जिससे निजी स्कूल और कॉलेजों की फीस में बढ़ोतरी हुई है। इन संस्थानों में पढ़ाई का खर्च आम आदमी की पहुँच से बाहर होता जा रहा है। इसका सीधा असर मध्यम और निम्न वर्ग के छात्रों पर पड़ रहा है, जो आर्थिक रूप से मजबूत नहीं होते।
2. सरकारी संस्थानों में फीस बढ़ोतरी : सरकारी शिक्षा संस्थानों, विशेषकर उच्च शिक्षा के संस्थानों में भी फीस में वृद्धि देखी गई है। आईआईटी, एनआईटी और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में फीस बढ़ोतरी ने छात्रों पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ डाला है। यह वृद्धि कई बार उस दर से अधिक रही है, जिससे निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग के छात्र उच्च शिक्षा हासिल करने से वंचित रह जाते हैं।
3. शिक्षा ऋण का बोझ : शिक्षा की महंगाई के कारण कई छात्र शिक्षा ऋण लेने को मजबूर हो रहे हैं। बैंक और वित्तीय संस्थाएँ उच्च ब्याज दरों पर शिक्षा ऋण देती हैं, जो बाद में छात्रों के लिए आर्थिक बोझ बन जाता है। शिक्षा ऋण के कारण छात्रों को करियर की शुरुआत में ही कर्ज के दबाव का सामना करना पड़ता है, जिससे उनका मानसिक और सामाजिक विकास प्रभावित हो सकता है।
4. शिक्षा का बाजारीकरण : शिक्षा अब एक व्यापार बनती जा रही है, जहाँ संस्थान अपनी सेवाओं का मूल्य शिक्षा की गुणवत्ता के बजाय बाजार की मांग के अनुसार तय करते हैं। इससे शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान का प्रसार नहीं, बल्कि लाभ कमाना बनता जा रहा है। इस स्थिति में, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करना केवल धनी वर्ग के लिए सुलभ हो गया है।
भाजपा सरकार का एजेंडा
भाजपा सरकार के तहत शिक्षा के क्षेत्र में कई बड़े बदलाव और नीतियां लागू की गईं हैं। लेकिन यह जानना महत्वपूर्ण है कि सरकार का शिक्षा से संबंधित क्या एजेंडा है और यह कैसे शिक्षा के स्तर और उसकी महंगाई को प्रभावित करता है :-
1. नई शिक्षा नीति 2020 (NEP) : भाजपा सरकार ने 2020 में नई शिक्षा नीति लागू की, जिसका उद्देश्य शिक्षा प्रणाली में व्यापक सुधार करना था। इस नीति में शिक्षा को अधिक लचीला और कौशल आधारित बनाने पर जोर दिया गया है। इसमें शुरुआती शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक व्यापक बदलाव प्रस्तावित हैं, जिसमें बहु-विषयी दृष्टिकोण, शिक्षा का अंतर्राष्ट्रीयकरण और डिजिटल शिक्षा पर जोर दिया गया है। हालांकि, नीति के प्रभावी कार्यान्वयन में अभी भी कई चुनौतियाँ हैं, विशेषकर ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में।
2. राष्ट्रीय संस्थानों को बढ़ावा : भाजपा सरकार ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), और अन्य प्रमुख राष्ट्रीय संस्थानों को बढ़ावा दिया है। लेकिन, इन संस्थानों में फीस में वृद्धि और सीटों की सीमित संख्या ने इसे कई छात्रों के लिए अप्राप्य बना दिया है।
3. शिक्षा का निजीकरण : भाजपा सरकार ने निजी संस्थानों को अधिक स्वायत्तता और बढ़ावा दिया है। इससे शिक्षा का निजीकरण बढ़ा है, जो कि शिक्षा को महंगा बना रहा है। सरकार का ध्यान शिक्षा के क्षेत्र में निजी निवेश आकर्षित करने पर अधिक रहा है, जिससे शिक्षा की लागत बढ़ी है और गरीब एवं मध्यम वर्ग के छात्रों के लिए इसे वहन करना मुश्किल हो गया है।
4. डिजिटल शिक्षा का जोर : भाजपा सरकार ने “डिजिटल इंडिया” के तहत शिक्षा में तकनीकी सुधार करने की कोशिश की है। लेकिन इस परिप्रेक्ष्य में, ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में इंटरनेट की कमी और डिजिटल संसाधनों की अनुपलब्धता के कारण यह योजना पूरी तरह सफल नहीं हो पाई है। डिजिटल विभाजन ने ग्रामीण और शहरी छात्रों के बीच शिक्षा के स्तर में अंतर को और बढ़ा दिया है।
2014 के बाद भारत में शिक्षा के क्षेत्र में कई बदलाव हुए हैं, जो सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही रहे हैं। शिक्षा के स्तर में गिरावट और उसकी महंगाई दो प्रमुख चिंताएँ बन गई हैं। भाजपा सरकार ने नई शिक्षा नीति और डिजिटल शिक्षा जैसे सुधारात्मक कदम उठाए हैं, लेकिन इन नीतियों का सही और प्रभावी कार्यान्वयन अब भी चुनौती बना हुआ है। निजीकरण और महंगी शिक्षा ने निम्न और मध्यम वर्ग के छात्रों के लिए शिक्षा की पहुँच को कठिन बना दिया है।
आने वाले समय में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि सरकार किस तरह से शिक्षा में सुधार और उसकी पहुँच को सुलभ बनाने के लिए ठोस कदम उठाती है। शिक्षा को व्यापार नहीं, बल्कि एक अधिकार के रूप में देखना आवश्यक है ताकि प्रत्येक वर्ग के छात्रों को समुचित शिक्षा मिल सके।
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