बुलेटिन इंडिया।
लक्ष्मी नारायण मुंडा की कलम से ✒️
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झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सहित विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने प्रत्येक वर्ष की तरह इस वर्ष भी धरती आबा बिरसा मुंडा की शहादत दिवस पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित किया है। राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह जैसे नेताओं ने भी सोशल मीडिया पर बिरसा मुंडा को याद किया। यहाँ कहना उचित होगा कि यह श्रद्धांजलि अब एक सतही औपचारिकता बनकर रह गई है, क्योंकि बिरसा के विचारों और उनके संघर्ष के मूल मुद्दों को पूरी तरह नजरअंदाज किया जा रहा है। खास तौर पर आदिवासी समाज के लिए बनाए गए विशेष भूमि कानूनों को कमजोर करने,उल्लघंन करने का काम,चाहे वह भाजपा का हो या झामुमो की सरकार हो या फिर एकीकृत बिहार राज्य में पूर्ववर्ती कांग्रेस की हो या अन्य दलों की सरकार रही हों। आज बिरसा की विरासत को धूमिल किया जा रहा है। मेरा यह आलेख बिरसा मुंडा के व्यक्तित्व,उनके संघर्ष और उनकी छवि को बदलने की कोशिशों के साथ-साथ वर्तमान राजनीति की विडंबनाओं पर प्रकाश डालता है।
बिरसा मुंडा : एक क्रांतिकारी योद्धा
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बिरसा मुंडा जिन्हें आदिवासी समाज ‘धरती आबा’ के रुप में सम्मान देता है, मात्र 25 वर्ष की आयु में अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ अपने ‘उलगुलान’ महाविद्रोह के लिए शहीद हो गए। उनकी तस्वीर जो उनकी गिरफ्तारी के समय की है एक साधारण कद-काठी के युवक जिसके चेहरे पर भय का कोई निशान नही, बल्कि एक कौतुक भरी मुस्कान है। यह तस्वीर उनके साहस, दृढ़ता और आदिवासी मूल्यों को दर्शाता है। बिरसा मुंडा का संघर्ष जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए था, जो आदिवासी समाज की जीवनरेखा है। उनके नेतृत्व में ही उलगुलान हुआ था। जिसने ब्रिटिश शासन को चुनौती दी और आदिवासी क्षेत्रों के लिए विशेष भूमि कानूनों की नींव रखी। जैसे संथाल परगना टीनेंसी एक्ट (एसपीटी एक्ट) और छोटानागपुर टीनेंसी एक्ट (सीएनटी एक्ट)।
बिरसा की छवि को बदलने की साजिश
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आज बिरसा की छवि को जानबूझकर विकृत करने का प्रयास हो रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रभाव में उनकी मूर्तियों को एक प्रौढ़ आर्य-जैसी छवि में ढाला जा रहा है, जो उनकी वास्तविक तस्वीर से मेल नही खाती है। रांची के पुराने जेल जहां बिरसा मुंडा को कैद किया गया था और जो अब संग्रहालय है,इसमें स्थापित उनकी प्रतिमा इसका उदाहरण है। इस तरह की मूर्तियां बिरसा मुंडा को भगवान के रुप में प्रस्तुत करती हैं, जबकि आदिवासी समाज में व्यक्ति पूजा की परंपरा नही है। आदिवासी उन्हें अपना पुरखा एक क्रांतिकारी नेता मानते हैं, न कि कोई दैवीय अवतार मानते हैं । यह छवि परिवर्तन केवल सौंदर्यबोध का मसला नही है, बल्कि एक सुनियोजित रणनीति है। इसका उद्देश्य बिरसा मुंडा के संघर्ष के मूल मुद्दों जल,जंगल, जमीन की रक्षा को कमजोर करना और आदिवासी वोट बैंक को लुभाने के लिए उनकी छवि का उपयोग करना है। बिरसा मुंडा को भगवान बनाकर उनकी क्रांतिकारी विचारधारा को धुंधला किया जा रहा है, ताकि लोग उनके असली संदेश को भूल जाएं।
भूमि कानूनों की धज्जियां और राजनीतिक अवसरवाद।
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बिरसा मुंडा के उलगुलान का सबसे बड़ा परिणाम यह हुआ कि आदिवासी क्षेत्रों के लिए विशेष भूमि कानूनों का निर्माण अंग्रेजी सरकार ने किया। ये कानून आदिवासियों की जमीन को गैर-आदिवासियों के हाथों में जाने से रोकते हैं और उनकी सांस्कृतिक व आर्थिक पहचान की रक्षा करते हैं। लेकिन आज इन कानूनों को कमजोर करने की कोशिशें हो रही हैं। सन् 2000 में झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी (भाजपा) ने दावा किया था कि यदि आदिवासियों को अपनी जमीन बेचने का अधिकार मिले तो वे धनवान बन जाएंगे। यह तर्क बाजारवादी नीतियों का समर्थन करता था,जो आदिवासी समाज की सामुदायिकता और प्रकृति से जुड़े मूल्यों के खिलाफ था। विडंबना यह है कि आज 2025 में झामुमो के नेता और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी नीति आयोग की बैठक में यही तर्क दे रहे हैं कि विशेष भूमि कानून विकास में बाधा हैं। यह बयान उस पार्टी का है, जो स्वयं को आदिवासी हितों का रक्षक मानती है। इसके अलावे केंद्र सरकार की कारपोरेट-परस्त नीतियों ने जल,जंगल और जमीन की लूट को बढ़ावा दिया है। छत्तीसगढ़ में हसदेव के जंगलों को अडाणी समूह के लिए काटा गया और झारखंड के गोड्डा में हजारों एकड़ जमीन अडाणी को पावर प्लांट के लिए आवंटित की गई, जो संथाल परगना टेनेंसी एक्ट का उल्लंघन है। इससे स्पष्ट होता है कि चाहे सत्ता में भाजपा हो या झामुमो या कोई भी पार्टी हो सभी बिरसा मुंडा के संघर्ष के मूल सिद्धांतों को नजरअंदाज कर रहे हैं।
भाजपा और झामुमो : एक ही सिक्के के दो पहलू।
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बिरसा मुंडा के शहादत दिवस पर दोनों दल भाजपा और झामुमो आदिवासी महापुरुषों और जननायकों का माल्यार्पण तो करते हैं, लेकिन उनके विचारों की धज्जियां उड़ाने में कोई कमी नही छोड़ते हैं। यह भी देखा जा रहा है कि भाजपा और संघ की नीतियां जहां आदिवासी संस्कृति को हिंदुत्व के ढांचे में ढालने की कोशिश करती हैं वहीं झामुमो की नीतियां भी अब कॉरपोरेट औधौगिक पूंजीपति घरानों के हितों के सामने लगातार झुकती दिख रही हैं। वर्तमान में दोनों ही दलों की अर्थनीतियां अब एक जैसी प्रतीत होती हैं, जहां बाजारवादी विकास को प्राथमिकता दी जा रही है और आदिवासी समाज के हितों को दरकिनार किया जा रहा है। यह विडंबना तब और गहरी हो जाती है जब हम देखते हैं कि बिरसा मुंडा के संघर्ष का मूल मुद्दा जमीन,जंगल और जल की रक्षा आज पूरी तरह उपेक्षित है। बिरसा मुंडा को भगवान बनाकर उनकी क्रांतिकारी विरासत को एक औपचारिक पूजा तक सीमित कर दिया गया है।
बिरसा की प्रासंगिकता और चुनौतियां।
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बिरसा का उलगुलान केवल अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ नही था, बल्कि यह शोषण, दमन और प्रकृति के दोहन के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन था। आज जब कॉरपोरेट लूट और पर्यावरण विनाश अपने चरम पर हैं, बिरसा की विचारधारा पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है।आदिवासी समाज के लिए बिरसा मुंडा केवल एक नायक नही, बल्कि प्रकृति, सामुदायिकता और आत्मसम्मान की रक्षा का प्रतीक हैं। उनकी विरासत को जीवित रखने के लिए जरुरी है कि उनके संघर्ष के मुद्दों को फिर से केंद्र में लाया जाए। विशेष भूमि कानूनों को और मजबूत करना, कॉरपोरेट लूट को रोकना और आदिवासी संस्कृति को संरक्षित करना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
बिरसा मुंडा की शहादत को याद करने का मतलब केवल माल्यार्पण करना या सोशल मीडिया पर पोस्ट करना नही है। उनकी विरासत को सही मायने में सम्मान देना तब होगा, जब उनके संघर्ष के मूल मुद्दों जल, जंगल,जमीन की रक्षा की जाए। हेमंत सोरेन और भाजपा दोनों ही बिरसा की मूर्तियों पर श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं, लेकिन उनकी नीतियां बिरसा के आदर्शों के खिलाफ हैं। यह समय है कि आदिवासी समाज और उनके हितैषी बिरसा मुंडा के विचारों को फिर से जीवित करें और उनकी क्रांतिकारी विरासत को सही दिशा में ले जाएं। बिरसा मुंडा को भगवान बनाने की बजाय उनके संघर्ष को समझने और उसे लागू करने की जरुरत है, ताकि आदिवासी समाज का सम्मान और उनकी पहचान बरकरार रहे।
(लेखक लक्ष्मीनारायण मुंडा, रांची झारखंड से हैं, आन्दोलनकारी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)