लक्ष्मी नारायण मुंडा की कलम से ✒️ 

झारखंड, भारत का एक ऐसा राज्यो जो अपनी प्राकृतिक संपदा, सांस्कृतिक समृद्धि और आदिवासी बहुल आबादी के लिए जाना जाता है, लेकिन आज एक गंभीर संकट से जूझ रहा है। यह संकट केवल आर्थिक और सामाजिक नही बल्कि आदिवासियों की पहचान, उनकी जमीन, जंगल, भाषा, संस्कृति, परंपरा और संवैधानिक का अधिकारों पर भी है।

 

पेसा एक्ट का प्रभावी कार्यान्वयन

आदिवासियों के लिए आर्थिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आधार बन सकता है। यह ग्राम सभाओं को सशक्त बनाएगा, जिससे आदिवासी समुदाय अपनी जमीन, जंगल और संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित कर सकेंगे। इसके अलावे निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं।

 

पेसा नियमावली का तत्काल निर्माण और कार्यान्वयन

झारखंड सरकार को हाईकोर्ट के निर्देशों का पालन करते हुए पेसा नियमावली को लागू करना चाहिए। इससे आदिवासियों को उनकी जमीन और संसाधनों पर नियंत्रण मिलेगा।

 

CNT-SPT और FRA का सख्ती से पालन

इन कानूनों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके साथ ही वन अधिकार अधिनियम के तहत आदिवासियों को उनके पारंपरिक जंगलों पर अधिकार दिया जाए।

 

आदिवासी भाषाओं और संस्कृति का संरक्षण

आदिवासी भाषाओं में संताली, मुंडारी, हो, कुड़ूख आदि भाषाओं को स्कूलों और प्रशासन में बढ़ावा देना चाहिए। वहीं सांस्कृतिक उत्सवों और परंपराओं को प्रोत्साहन देने पर जोर देना चाहिए।

 

विस्थापन और पलायन पर रोक

सभी विकास परियोजनाओं में गैर-विस्थापन और कम विस्थापन करने वाली परियोजनाओं के विकल्पों को प्राथमिकता दी जाए। वहीं सरकार के द्वारा पुनर्वास नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करने का प्रयास किया जाए।

 

राजनीतिक जागरुकता और आंदोलन

आदिवासियों को अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए संगठित होकर आंदोलन करना होगा। सरकार, राज्यपाल और राजनीतिक दलों पर दबाव बनाना होगा।
झारखंड में आदिवासियों का संकट एक गहरी और जटिल समस्या है जो संवैधानिक प्रावधानों की उपेक्षा, कॉर्पोरेट लोभ-लालच, और सरकारी निष्क्रियता का परिणाम है। पांचवीं अनुसूची, पेसा एक्ट और अन्य विशेष कानूनों का प्रभावी कार्यान्वयन आदिवासियों को उनकी जमीन, जंगल, और सांस्कृतिक पहचान को बचाने में मदद कर सकता है। लेकिन इसके लिए आदिवासी समुदाय को एकजुट होकर सरकार और राज्यपाल के खिलाफ आंदोलन करना होगा। यह पुनर्जागरण का दौर तभी संभव है, जब आदिवासी अपनी आवाज को बुलंद करें और अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करें। झारखंड के आदिवासियों का भविष्य उनकी एकता,जागरुकता और संवैधानिक हक की मांग पर निर्भर करता है। यह समय है कि वे अपने अधिकारों के लिए न केवल सवाल उठाएं, बल्कि सड़कों पर उतरकर अपनी आवाज को शक्ति दें। तभी “अबुआ राज” का सपना साकार हो सकता है।

(लेखक रांची झारखंड के आदिवासी समुदाय से आने वाले जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता,एक्टिविस्ट और आंदोलनकारी हैं। )

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