• रांची में फिल्म “संतोष” की सार्वजानिक स्क्रीनिंग।

• नागरिकों ने फिल्म रिलीज करने की अनुमति नहीं देने पर सीबीएफसी पर जताया रोष।

बुलेटिन इंडिया।

विशद कुमार ✒️

2 मई 2025 को झारखंड की राजधानी रांची के टैगोर हिल के पास खुले आसमान के नीचे सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षाविद, वकील, फिल्म निर्माता, पत्रकार और छात्रों सहित एक सौ से अधिक लोगों ने “संतोष” फिल्म देखी, जिसे भारत सरकार द्वारा पास नहीं किया गया है। फिल्म के सार्वजनिक स्क्रीनिंग का आयोजन झारखंड जनाधिकार महासभा द्वारा किया गया था। स्क्रीनिंग के बाद एक जन चर्चा भी हुई, जहां दर्शकों ने पुलिस की बर्बरता, जातिगत भेदभाव और संस्थागत इस्लामोफोबिया की वास्तविकताओं को दर्शाने के लिए फिल्म की सराहना की।

बताते चले कि “संतोष” फिल्म को विदेशों में काफी सराहा गया है, लेकिन भारत के केंद्रीय प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) ने इसे रिलीज करने की अनुमति नहीं दी है। सीबीएफसी ने कई दृश्यों पर आपत्ति जताई है, जिसमें मुख्य रूप से फिल्म में पुलिस बर्बरता और जातिगत भेदभाव से संबंधित दृश्यों को काफी बेबाकी से दर्शाया गया है। जिसमें सीबीएफसी द्वारा व्यापक बदलाव की मांग गई जो निर्माताओं को स्वीकार्य नहीं था, इसलिए अनुमति देने से इनकार कर दिया गया।

 

फिल्म देखने के बाद, दर्शकों ने सीबीएफसी को बिना किसी कटौती के फिल्म को तुरंत रिलीज करने की अनुमति देने के लिए संलग्न पत्र भी जारी किया।

जैसा कि पत्र में कहा गया है, यह विडंबना है कि बोर्ड नियमित रूप से खून-खराबे से भरपूर और अक्सर बच्चों द्वारा देखी जाने वाली अत्यंत हिंसक फिल्मों को मंजूरी देता है। लेकिन बोर्ड “संतोष” में पुलिस की बर्बरता के संयमित लेकिन तथ्यात्मक रूप से सही चित्रण को पचा नहीं पाया। भारतीय समाज में व्यापक जातिगत भेदभाव और छुआछुत को छिपाने की सीबीएफसी की कोशिश अत्यंत दयनीय है। ऐसी खबर है कि बोर्ड ने “संतोष” में “दलित” शब्द के इस्तेमाल पर भी आपत्ति जताई है।

 

पत्र में इस आम जानकारी का भी ज़िक्र है कि फिल्म उद्योग खुद जातिवाद से ग्रस्त है। अधिकांश ‘हीरो’ और हीरोइनें उच्च जातियों से हैं या उनके उच्च जाति के नाम हैं। दलित और आदिवासी कलाकारों को लगभग बाहर रखा गया है। कहानियाँ आमतौर पर अभिजात वर्ग के लोगों के आरामदायक जीवन के इर्द-गिर्द घूमती हैं। दलित या आदिवासी पात्रों की भूमिकाएँ लगभग गौण रहती हैं। उनके वास्तविक जीवन को शायद ही कभी सटीकता, सहानुभूति या सराहना के साथ चित्रित किया जाता है। संतोष ने इस पैटर्न और सोच को कुछ हद तक तोड़ा है। इसे दबाया नहीं जाना चाहिए बल्कि समर्थन दिया जाना चाहिए था। लेकिन सीबीएफसी इनकार की मुद्रा में है।

 

कहना ना होगा कि हाल के वर्षों में, बोर्ड के सत्तारूढ़ भाजपा सरकार की राजनीतिक शाखा के रूप में काम करने के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। भाजपा और आरएसएस की विचारधारा को बढ़ावा देने वाली फिल्मों को बिना किसी बदलाव के पास कर दिया जाता है, जबकि असमानता, अन्याय और सांप्रदायिकता की वास्तविकताओं को दिखाने वाली अन्य फिल्मों को सेंसर कर दिया जा रहा है। “संतोष” स्क्रीनिंग के दर्शकों ने प्रमाणन बोर्ड का वैचारिक “सेंसरशिप” बोर्ड में बदल जाने की निंदा की। दर्शकों ने यह भी आशा व्यक्त की कि इस फिल्म की भारत भर में और स्क्रीनिंग की जाएगी, भले ही सीबीएफसी की अनुमति दे या न दे।

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