बुलेटिन इंडिया।
विशद कुमार की रिपोर्ट
रांची। झारखंड की राजधानी बगाईचा में लैंड राइट फोर आदिवासी वीमेन ग्रुप द्वारा “आदिवासी महिलाओं का जमीन पर अधिकार” विषय पर एक बैठक आयोजित की गई, जिसमें इतिहास, नैतिकता और आदिवासी समाज में आदिवासी महिलाओं की हिंसा पर चर्चा की गई।
चर्चा के दौरान आकृति लकड़ा ने विषय पर फोकस करते हुए कहां कि इतिहास, नैतिकता और आदिवासी समाज में आदिवासी महिलाओं पर हिंसा लगातार बना हुआ है जिसका मूल कारण है जमीन पर मालिकाना हक का ना मिलना। ऐसी स्थिति में समाज में महिलाओं की पहचान पुरूषों की पहचान से जाना जाता रहा है।
आकृति ने कहा कि पहचान में औरत की पहचान सिर्फ पुरुष से सम्बंधित है जैसे – वे मां, बहन, पत्नी, बेटी के रूप में ही जानी जाती रहीं हैं, उनकी अपनी स्वतंत्र पहचान आज तक नहीं बनी है। इसीलिए आदिवासी समाज में स्त्रियां जमीन की मालिक नहीं होती हैं, तो जाहिर है मालिकाना अधिकार का ना होना उसमें उनकी पहचान से उन्हें वंचित करता है। जबकि जमीन बनाने और खेती किसानी में उनका सबसे अधिक श्रम की भागीदारी होती है।
आकृति ने कहा कि न्यायालय के दर पर यदि औरतें हक मांग रहीं हैं तो इसका मतलब है प्री-कोलोनियल समय पर महिलाओं के नाम की मौजूदगी रहीं हैं।
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए रजनी मुर्मू ने बताया कि जमीन आदिवासी समाज की पहचान है। पर वहीं, जमीन आदिवासी औरतों की पहचान नहीं बना पाई है। उसकी पहचान तो पलना की मां, बहन, पत्नी, बेटी के रूप में जानी जाती रहीं हैं। उनकी अपनी स्वतंत्र पहचान नहीं बनी है इसलिए कि स्त्रियां जमीन की मालिक नहीं होती हैं। मालिक ना होना पहचान से वंचित करता है। जबकि जमीन बनाने और खेती किसानी में उसका सबसे अधिक श्रम जाता है।
रजनी मुर्मू ने कहा कि आदिवासी सामाज की मान्यताओं के अनुसार खेती करने के समय लड़का लड़की द्वारा विवाह कर खेती का काम किया जाता है। मान्यता है कि जिस घर में महिलाएं ना हो वहां की जमीन बंजर हो जाती है। लेकिन जहां बंजर भूमि है वहां महिलाओं के सहयोग से खेती होती है, वैसे ही घर बसने बसाने की प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। लेकिन समाज ने हमेशा उन्हें ताकत के रूप में देखने या बनाने से वंचित रखा है। वैसे ही आदिवासी समाज में जमीन का मालिकाना हक देने से समाज ने महिलाओं को वंचित रखा है। जो आदिवासी औरतों की स्वतंत्र पहचान बनने नहीं देता है जो उनके कई अधिकारों से उन्हें वंचित करता है।
रजनी ने कहा कि अगर पूराने दौर की बात किया जाए तो आदिवासी समाज में समुदायिक जमीन थी वह समुदाय का होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। समुदाय का सीधा मतलब तलाब, जंगल, गोचर से था जो आज भी समुदाय का ही है। लेकिन परिवार के अंदर खेती करने का वो व्यक्ति की जमीन ही होती थी जिस पर पड़ोसी उसके सहमति के बिना खेत नहीं कर सकता था।
लेकिन जब भी जमीन पर औरतों का मालिकाना हक की बात उठती है लोग तर्क देते हैं आदिवासी का जमीन समुदायिक जमीन हैं।
आलोका कुजूर ने कहा कि आदिवासी समाज में कस्टमरी कानून बना हुआ है, जिसका उपयोग समाजिक, परिवारिक हित तौर पर नहीं है। उस कस्टमरी कानून में महिलाओं को जमीन देने की बात नहीं होती है। एकल महिलाएं, सिर्फ बेटी वाला माता पिता या अकेली मां, बुढ़ी औरतों के लिए समाज में विशेष जगह नहीं है। कुछ जगह में सिर्फ परिवार में महिलाएं हैं वहां भरण-पोषण के लिए उपयोग होता है। पर स्त्रियों का नाम दर्ज नहीं है। यह प्रैक्टिस में नहीं है।
उन्होंने कहा कि खतियान में महिलाओं के नाम दर्ज नहीं है। इस बात से इंगित होता आ रहा हैं परम्परागत कस्टमरी लॉ धरातल पर नहीं है। आदिवासी समाज ने कस्टमरी कानून का दरकिनार किया है। जिससे आज महिलाएं जमीन से वंचित हैं, जमीन के कारण हिंसा-यातना के कारण महिलाएं कोर्ट जा रहीं और धर्म के आधार पर हक की मांग कर रहीं हैं। यदि कानून धरातल पर होते तो आदिवासी समाज में डायन हत्या जैसी गम्भीर घटना को अंजाम नहीं दिया जाता। समाज को इस पर विचार-विमर्श करना चाहिए और औरतों के हक पर बराबरी मालिकाना हक जमीन पर मिलना चाहिए।

लैंड राइट फोरम द्वारा आयोजित यह बैठक झारखंड की राजधानी बगाईचा में हुई। जिसमें नितिशा खलखो, अल्का आइंद, आकांक्षा विहा, लिपि बाग, दीप्ति बेसरा, शालनी और एलिना होरों ने भी अपनी बातें रखीं।
बैठक में कहा गया कि मंच यह प्रयास करेगा कि कस्टमरी कानून और ग्रामसभा में निर्णय प्रक्रिया महिलाओं की भागीदारी पर कार्य करेगी और बिना शर्त महिलाओं को हक मिलेगा।