बिलकिस बानो केस के आरोपियों पर गुजरात सरकार की मेहरबानी: एक विचारणीय परिप्रेक्ष्य

BULLETIN INDIA DESK ::
 

सत्या पॉल की कलम से।✒️

  • सुप्रीम कोर्ट का आदेश: बिलकिस बानो केस के आरोपी पुनः जाएंगे जेल।
  • गुजरात सरकार ने 15 अगस्त 2022 को बिलकिस बानो केस के 11 दोषियों को रिहा किया था।

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बिलकिस बानो का मामला भारतीय न्यायपालिका और समाज के सामने एक गहरा सवाल खड़ा करता है। यह केस 2002 के गुजरात दंगों के दौरान हुए एक जघन्य अपराध से संबंधित है, जिसमें बिलकिस बानो, जो उस समय गर्भवती थीं, उनके परिवार के कई सदस्यों की निर्मम हत्या कर दी गई थी। बिलकिस के साथ गैंगरेप हुआ और उसके परिवार के सदस्यों में से 14 लोग मारे गए थे, जिसमें उसकी तीन साल की बेटी भी शामिल थी। यह घटना उस समय साम्प्रदायिक हिंसा का चरम उदाहरण थी, जिसने पूरे देश को हिला दिया था।

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इस पूरे मामले में सबसे ज्यादा चर्चा तब हुई जब गुजरात सरकार ने 15 अगस्त 2022 को बिलकिस बानो केस के 11 दोषियों को रिहा करने का निर्णय लिया। इन आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी, लेकिन स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर विशेष माफी देकर उन्हें रिहा कर दिया गया। इस निर्णय ने समाज और मीडिया में तीव्र आलोचना और विरोध को जन्म दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार की समीक्षा याचिका खारिज की

सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो केस में गुजरात सरकार की उस समीक्षा याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें 2002 के गुजरात दंगों के दौरान बिलकिस बानो के साथ हुए गैंगरेप और उनके परिवार के 7 सदस्यों की हत्या के दोषी 11 लोगों को दी गई छूट को रद्द करने के फैसले पर पुनर्विचार की मांग की गई थी।

जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस उज्जल भुइयां की बेंच ने कहा कि सभी दस्तावेजों और आदेशों की गहन जांच के बाद भी कोई त्रुटि नहीं पाई गई, जिसके आधार पर पुनर्विचार किया जा सके। इसलिए, गुजरात सरकार की याचिका को खारिज कर दिया गया।

गुजरात सरकार ने तर्क दिया था कि सुप्रीम कोर्ट के पिछले आदेश में राज्य पर “विवेक के दुरुपयोग” का आरोप लगाते हुए एक “स्पष्ट त्रुटि” की बात कही गई थी।

गोधरा कांड के बिलकिस बानो केस में 2008 में 11 दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, लेकिन 15 अगस्त 2022 को उन्हें गुजरात सरकार की छूट नीति के तहत रिहा कर दिया गया था।

8 जनवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने इस छूट को खारिज करते हुए कहा था कि गुजरात सरकार को दोषियों को छूट देने का अधिकार नहीं था, क्योंकि मामला महाराष्ट्र में चला था। अदालत ने दोषियों को आत्मसमर्पण करने का आदेश भी दिया था।

गुजरात सरकार का निर्णय: न्याय या राजनीति?

गुजरात सरकार के इस निर्णय ने कई सवाल खड़े किए हैं। सबसे पहला सवाल यह है कि क्या यह निर्णय न्याय की भावना के अनुरूप है या इसके पीछे राजनीतिक हित साधे गए हैं? बिलकिस बानो केस केवल एक आपराधिक मामला नहीं था, यह मानवता के खिलाफ किए गए अपराध का प्रतीक था। ऐसे में दोषियों को माफी देना एक बड़ा नैतिक और कानूनी प्रश्न खड़ा करता है।

माफी का औचित्य

भारतीय दंड संहिता और संविधान में यह प्रावधान है कि किसी भी दोषी को समय के साथ उसकी सजा में राहत दी जा सकती है, बशर्ते कि उसकी सजा की अवधि का एक बड़ा हिस्सा पूरा हो चुका हो और वह अच्छे आचरण का पालन कर रहा हो। लेकिन जब बात ऐसे गंभीर अपराधों की हो, जहां बलात्कार और सामूहिक हत्या जैसे जघन्य कृत्य शामिल हों, तो माफी का सवाल और भी संवेदनशील हो जाता है। इस मामले में दोषियों को न केवल सजा से मुक्त किया गया, बल्कि जिस प्रकार से उन्हें सार्वजनिक तौर पर सम्मानित किया गया, उससे पूरे देश में आक्रोश पैदा हो गया।

न्यायिक प्रक्रिया की अनदेखी

बिलकिस बानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने दोषियों को सजा सुनाई थी और उनका दोष सिद्ध किया था। ऐसे में राज्य सरकार द्वारा माफी दिए जाने के फैसले पर सवाल उठते हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद राज्य सरकार ने माफी दी, जो न्यायिक प्रक्रिया के प्रति एक प्रकार की अनदेखी प्रतीत होती है। इस प्रकार के निर्णय से न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन पर भी सवाल उठते हैं। न्यायिक फैसले का सम्मान और उसकी निष्पक्षता लोकतंत्र की बुनियाद है, जिसे इस प्रकार के फैसलों से कमजोर किया जा सकता है।

राजनीतिक मंशा का संकेत?

इस माफी के निर्णय को कई लोग राजनीतिक दृष्टिकोण से भी देख रहे हैं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह निर्णय सरकार द्वारा एक खास वर्ग को खुश करने के लिए लिया गया है। गुजरात में 2002 के दंगों के बाद से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का बोलबाला रहा है। ऐसे में इस माफी को आगामी चुनावों के मद्देनजर एक रणनीतिक चाल के रूप में देखा जा सकता है।

हालांकि, यह भी जरूरी है कि हम केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से ही इस मामले को न देखें। न्याय का उद्देश्य केवल अपराधी को सजा देना नहीं, बल्कि पीड़ित को न्याय दिलाना और समाज में विश्वास पैदा करना होता है। बिलकिस बानो केस में माफी दिए जाने से पीड़ित के साथ अन्याय हुआ प्रतीत होता है और यह संदेश जाता है कि जघन्य अपराधों के दोषी भी राजनीतिक लाभ के लिए छूट सकते हैं।

पीड़ित की भावनाओं की अनदेखी

किसी भी माफी के निर्णय में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष होता है पीड़ित की भावनाएं और उसके साथ किया गया व्यवहार। बिलकिस बानो, जो इस पूरे कृत्य की जीवित गवाह हैं, उनके साथ न्याय की भावना का उल्लंघन हुआ है। उन्होंने इस निर्णय पर गहरा दुख और आक्रोश व्यक्त किया है। उनका कहना है कि उन्हें और उनके परिवार को इस फैसले से गहरा आघात पहुंचा है, और यह उनके लिए एक और सदमा साबित हुआ है।

बिलकिस ने अपने जीवन के दो दशक न्याय की लड़ाई में लगाए, और जब उन्हें न्याय मिला तो यह निर्णय उनके सारे संघर्ष पर पानी फेरता प्रतीत हुआ। यह समाज के उस तबके के लिए एक गलत संदेश भी भेजता है जो पहले से ही कमजोर और हाशिए पर है। न्याय की प्रक्रिया केवल कानून के अनुपालन तक सीमित नहीं हो सकती, बल्कि इसमें पीड़ित के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पक्ष को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

महिला अधिकारों की उपेक्षा

बिलकिस बानो केस केवल एक महिला के साथ हुए अत्याचार का मामला नहीं है, बल्कि यह उन लाखों महिलाओं की कहानी का प्रतिनिधित्व करता है, जो हिंसा और शोषण का शिकार होती हैं। इस मामले में दोषियों को माफी दिए जाने का निर्णय महिला अधिकारों की उपेक्षा का प्रतीक है। भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति पहले से ही कमजोर है और इस प्रकार के फैसले महिलाओं की सुरक्षा और उनके अधिकारों के प्रति सरकार की गंभीरता पर सवाल खड़े करते हैं।

बिलकिस बानो केस के आरोपियों को माफी देने का गुजरात सरकार का निर्णय न केवल न्यायिक प्रक्रिया की अनदेखी का उदाहरण है, बल्कि यह समाज में न्याय और नैतिकता के प्रति एक गंभीर प्रश्नचिह्न लगाता है। इस प्रकार के फैसले समाज में यह संदेश देते हैं कि जघन्य अपराधों के दोषी भी सजा से बच सकते हैं, बशर्ते उनके पक्ष में राजनीतिक या सामाजिक समर्थन हो।

यह माफी न केवल बिलकिस बानो और उनके परिवार के लिए अन्याय का प्रतीक है, बल्कि यह उन लाखों पीड़ितों के संघर्ष को भी कमजोर करती है जो न्याय की आस में सालों-साल लड़ते हैं। न्याय का उद्देश्य केवल दोषियों को सजा देना नहीं, बल्कि पीड़ित को सम्मान और समाज में विश्वास बहाल करना होता है।

गुजरात सरकार के इस निर्णय ने न केवल न्यायपालिका और लोकतंत्र की नींव पर सवाल खड़े किए हैं, बल्कि यह सरकार के निर्णय लेने की क्षमता और उसकी नैतिकता पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है। इस पूरे मामले ने यह साबित कर दिया है कि न्याय और राजनीति के बीच की खाई कितनी गहरी हो सकती है, और इसे पाटने की जिम्मेदारी हमारे समाज और सरकार दोनों की है।

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