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सत्या पॉल की कलम से ✒️
भारत के तीन पड़ोसी देशों – श्रीलंका, बांग्लादेश और अब नेपाल – में उभरते हालात केवल उनके आंतरिक संकट का परिणाम नहीं हैं, बल्कि यह दक्षिण एशियाई राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक ढांचे से जुड़ी गहरी चुनौतियों को भी उजागर करते हैं। श्रीलंका दिवालिया होने की कगार तक जा चुका है, बांग्लादेश विदेशी ऋण व आर्थिक असंतुलन से जूझ रहा है और नेपाल इन दिनों भीषण महँगाई, राजनीतिक अस्थिरता और जनआक्रोश के दौर से गुजर रहा है। इन परिस्थितियों की पड़ताल करना और इनके पीछे छिपे कारणों को समझना आज आवश्यक है।
⇒ श्रीलंका : गलत आर्थिक नीतियों का परिणाम
श्रीलंका कभी दक्षिण एशिया के विकसित होते देशों में गिना जाता था। लेकिन अंधाधुंध विदेशी ऋण, अस्थिर कर नीतियाँ और तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए उठाए गए अव्यावहारिक निर्णयों ने देश को संकट में धकेल दिया। 2022 में वहाँ ईंधन, दवाइयों और खाद्यान्न की भारी किल्लत ने लोगों को सड़कों पर ला खड़ा किया। चीन से लिए गए अत्यधिक ऋण और अव्यावहारिक परियोजनाओं (जैसे हंबनटोटा बंदरगाह) ने आर्थिक ढांचे को तोड़ दिया।
⇒ बांग्लादेश : निर्यात-निर्भर अर्थव्यवस्था का संकट
बांग्लादेश ने पिछले दो दशकों में वस्त्र उद्योग के बल पर बड़ी आर्थिक छलांग लगाई। लेकिन जब वैश्विक बाजार में मंदी आई और डॉलरीकृत ऋण पर दबाव बढ़ा तो उसकी निर्भरता उजागर हो गई। विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से घटा, मुद्रास्फीति बढ़ी और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से सहायता लेनी पड़ी। यह स्थिति बताती है कि केवल एक या दो क्षेत्रों पर आधारित अर्थव्यवस्था लंबे समय तक स्थिर नहीं रह सकती।
⇒ नेपाल : वर्तमान संकट और भयावह तस्वीर
नेपाल इस समय त्रस्त है। वहाँ महँगाई चरम पर है, रोज़गार के अवसर सिकुड़ रहे हैं और युवाओं का पलायन लगातार बढ़ रहा है। राजनीतिक अस्थिरता ने जनता का भरोसा तोड़ दिया है। संसद और सरकार में बार-बार बदलते समीकरणों के कारण कोई दीर्घकालिक नीति लागू नहीं हो पा रही। चीन और भारत के बीच संतुलन साधने की कूटनीतिक कोशिशों में भी नेपाल उलझ गया है। आयात पर अत्यधिक निर्भरता, सीमित उत्पादन क्षमता और भ्रष्टाचार ने आमजन के जीवन को कठिन बना दिया है।
⇒ समान कारणों की पड़ताल
इन तीनों देशों की परिस्थितियों का अध्ययन करने पर कुछ सामान्य कारण स्पष्ट होते हैं –
1. विदेशी ऋण पर अंधाधुंध निर्भरता – सभी देशों ने अल्पकालिक विकास दिखाने के लिए भारी ऋण लिया, लेकिन उसकी उत्पादकता और पुनर्भुगतान क्षमता का ध्यान नहीं रखा।
2. राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार – बार-बार बदलती सरकारें, आंतरिक सत्ता संघर्ष और पारदर्शिता की कमी ने नीतियों को असफल बनाया।
3. आर्थिक विविधता का अभाव – सीमित उद्योग या आय के स्रोतों पर आधारित अर्थव्यवस्था वैश्विक उतार-चढ़ाव में टिक नहीं पाती।
4. लोकलुभावन राजनीति – जनता को तत्काल राहत देने के लिए मुफ्त योजनाओं और अव्यावहारिक सब्सिडी ने वित्तीय घाटे को बढ़ाया।
⇒ भारत के लिए सबक
भारत अपने पड़ोसियों की स्थिति से अनभिज्ञ नहीं रह सकता। ये तीनों देश भारत के भू-राजनीतिक व आर्थिक हितों से गहराई से जुड़े हैं। सबसे पहला सबक यह है कि किसी भी देश की अर्थव्यवस्था केवल बाहरी ऋण और आयात पर नहीं टिक सकती। आत्मनिर्भर उत्पादन क्षमता, विविध उद्योग और स्थिर राजनीतिक नेतृत्व आवश्यक है।
दूसरा सबक यह है कि लोकलुभावन वादों और अव्यावहारिक नीतियों से बचना चाहिए। अल्पकालिक लोकप्रियता के लिए उठाए गए ऐसे कदम भविष्य में विनाशकारी सिद्ध हो सकते हैं।
तीसरा सबक यह है कि पड़ोसी देशों की स्थिरता भारत के लिए भी अनिवार्य है। यदि नेपाल या बांग्लादेश जैसे देशों में अराजकता बढ़ती है, तो उसका सीधा असर भारत पर पड़ता है – चाहे वह अवैध प्रवास के रूप में हो, सीमा-पार अपराध के रूप में या आर्थिक सहयोग पर दबाव के रूप में।
श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल की वर्तमान स्थिति केवल उनके राष्ट्रीय संकट नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए चेतावनी है। यह समय है जब क्षेत्रीय देश सामूहिक रूप से दीर्घकालिक आर्थिक सहयोग, पारदर्शी शासन और आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ें। भारत को भी इन अनुभवों से सीखते हुए अपनी नीतियों को और मजबूत करना होगा, ताकि भविष्य में वह किसी भी संभावित संकट से सुरक्षित रह सके।