न्याय व्यवस्था का दोहरा चरित्र: फादर स्टेन स्वामी की मौत और आसाराम को जमानत
सत्या पॉल की कलम से ✒️
न्याय का सिद्धांत स्पष्ट है कि यह अंधा होता है और सभी के लिए समान रूप से काम करता है। लेकिन क्या वास्तव में भारत की न्याय व्यवस्था इस आदर्श पर खरी उतरती है? हाल की दो घटनाएं – फादर स्टेन स्वामी की जेल में मौत और आसाराम को जमानत – इस व्यवस्था के दोहरे चरित्र को उजागर करती हैं।
फादर स्टेन स्वामी: न्याय के लिए संघर्ष और मौत
फादर स्टेन स्वामी, एक 84 वर्षीय आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता और मानवाधिकारों के प्रति समर्पित व्यक्ति, भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले में आरोपी बनाए गए थे। उन्हें राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने 2020 में गिरफ्तार किया। आरोप था कि वे माओवादी संगठनों से जुड़े हैं। लेकिन इस बात के पर्याप्त सबूत नहीं थे कि वे किसी प्रकार की हिंसक गतिविधि में संलिप्त थे।
स्वास्थ्य समस्याओं से जूझते हुए, उन्होंने जेल में अपनी ज़िंदगी के आखिरी दिन बिताए। उन्हें पार्किंसन जैसी गंभीर बीमारी थी, और बार-बार उनकी जमानत याचिकाएं खारिज कर दी गईं। एक समय तो ऐसा आया जब उन्होंने अदालत से एक स्ट्रॉ और सिपर की मांग की थी, क्योंकि उनकी स्थिति इतनी दयनीय थी कि वे बिना सहारे पानी भी नहीं पी सकते थे।
यह देखकर यह प्रश्न उठता है कि क्या हमारी न्याय व्यवस्था इतनी कठोर हो गई है कि एक वृद्ध, बीमार और मानवाधिकारों के लिए समर्पित व्यक्ति को सहानुभूति देने में असमर्थ है? फादर स्टेन स्वामी की मौत केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि न्याय और मानवता की भी हार थी।
आसाराम: दोषी होने के बावजूद जमानत
दूसरी ओर, आसाराम बापू का मामला इस दोहरे चरित्र को स्पष्ट करता है। आसाराम को 2018 में नाबालिग से दुष्कर्म के मामले में दोषी ठहराया गया था। उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई। बावजूद इसके, बार-बार उनकी जमानत याचिकाएं स्वीकार की गईं, और हाल ही में उन्हें इलाज के नाम पर जमानत दी गई।
यह विडंबना है कि एक दोषी, जिसे अदालत ने दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध का दोषी पाया है, वह बार-बार जमानत पाने में सफल हो रहा है। यह मामला न्याय व्यवस्था के उस पक्ष को दिखाता है जहां प्रभाव, धन और शक्ति के आगे कानून झुकता हुआ प्रतीत होता है।
दोहरी न्याय व्यवस्था का स्वरूप
भारत की न्याय व्यवस्था में ऐसे कई मामले देखने को मिलते हैं, जहां आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव के कारण न्याय का स्वरूप बदल जाता है। फादर स्टेन स्वामी जैसे व्यक्ति, जिनके पास सत्ता या धन नहीं था, उन्हें अपनी बेगुनाही साबित करने का भी अवसर नहीं मिला। दूसरी ओर, आसाराम जैसे प्रभावशाली लोग अपने संपर्कों और संसाधनों का इस्तेमाल कर अपनी स्थिति को लगातार बेहतर बनाते रहे।
प्रश्न जो उठते हैं
1. क्या न्याय व्यवस्था में समानता है?
क्या गरीब, कमजोर और प्रभावहीन लोग इस व्यवस्था में न्याय पाने की उम्मीद कर सकते हैं? स्टेन स्वामी का मामला दर्शाता है कि न्याय केवल कुछ गिने-चुने लोगों के लिए आरक्षित होता दिखता है।
2. स्वास्थ्य और मानवाधिकारों का मुद्दा
स्टेन स्वामी की उम्र और स्वास्थ्य को देखते हुए, क्या उन्हें मानवीय आधार पर राहत नहीं मिलनी चाहिए थी? दूसरी ओर, आसाराम के स्वास्थ्य के नाम पर दी गई राहत न्याय के मापदंडों पर सवाल खड़ा करती है।
3. क्या प्रभावशाली लोगों के लिए अलग नियम हैं?
आसाराम का मामला यह दिखाता है कि कैसे प्रभावशाली लोग न्यायिक प्रक्रिया का फायदा उठाते हैं।
न्याय व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता
यह समय है कि हमारी न्याय प्रणाली पर गंभीरता से विचार किया जाए। निम्नलिखित पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है:
• मानवीय आधार पर न्याय: गंभीर बीमारियों से जूझ रहे कैदियों को मानवीय आधार पर राहत दी जानी चाहिए।
• तेज और पारदर्शी न्याय प्रक्रिया: अदालतों में मामलों का निपटारा तेजी से होना चाहिए ताकि निर्दोष लोगों को सालों तक जेल में न रहना पड़े।
• प्रभावहीन लोगों के लिए सहायता: गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों को कानूनी सहायता प्रदान की जानी चाहिए ताकि वे प्रभावशाली लोगों के समक्ष खड़े हो सकें।
• प्रभावशाली लोगों पर सख्ती: जिन पर गंभीर अपराधों का आरोप है, उन्हें जमानत देने में सख्ती बरतनी चाहिए।
फादर स्टेन स्वामी और आसाराम के मामले हमारी न्याय व्यवस्था के दो विपरीत पहलुओं को उजागर करते हैं। एक ओर जहां एक वृद्ध, बीमार व्यक्ति न्याय और दया की आशा में अपनी जान गंवा देता है, वहीं दूसरी ओर एक दोषी व्यक्ति बार-बार राहत पाता है। यह स्थिति केवल कानून के पालन का मुद्दा नहीं, बल्कि मानवता और नैतिकता के प्रश्न भी उठाती है।
यदि हमें एक सशक्त और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण करना है, तो यह आवश्यक है कि न्याय व्यवस्था में समानता और पारदर्शिता लाई जाए। फादर स्टेन स्वामी की मौत को केवल एक घटना के रूप में नहीं, बल्कि एक चेतावनी के रूप में देखा जाना चाहिए कि कहीं हमारी न्याय व्यवस्था अपने मूल उद्देश्य से भटक न जाए।