लक्ष्मीनारायण मुंडा की कलम से ✒️
भारत के संवैधानिक गणराज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग और दंडकारण्य क्षेत्र में आदिवासी समुदायों के साथ जो व्यवहार हुआ है, वह न केवल मानवीय संकट का प्रतीक है, बल्कि यह विकास, अधिकार और कॉरपोरेट हितों के बीच टकराव की एक जटिल कहानी को भी उजागर करता है। नक्सली उन्मूलन और सलवा जुड़ुम जैसे अभियानों के नाम पर बस्तर के आदिवासियों को उनके जंगल, जमीन, संस्कृति और समुदाय से वंचित कर दिया गया। यह आलेख इस मुद्दे की गहराई में जाकर इसके विभिन्न पहलुओं, कारणों और परिणामों का विश्लेषण करता है, इसके साथ ही यह सवाल उठाता है कि क्या वास्तव में यह सब आदिवासियों के कल्याण के लिए है या कॉरपोरेट हितों को बढ़ावा देने का एक सुनियोजित प्रयास का हिस्सा है।
बस्तर का ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ
छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग जो दंडकारण्य क्षेत्र का हिस्सा है, प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध है। यहाँ के घने जंगल, खनिज भंडार (जैसे लौह अयस्क, कोयला और बॉक्साइट) और जैव-विविधता इसे औद्योगिक और कॉरपोरेट हितों के लिए आकर्षित करते हैं। यह क्षेत्र मुख्य रूप से आदिवासी समुदायों का निवास है, जिनका जीवन जंगल, जमीन और उनकी सांस्कृतिक परंपराओं पर निर्भर है। आदिवासियों की संस्कृति में जंगल केवल संसाधन नहीं, बल्कि उनकी पहचान, आध्यात्मिकता और सामुदायिक जीवन का आधार है।
भारत के स्वतंत्रता के बाद और विशेष रुप से वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद इस क्षेत्र में विकास परियोजनाओं और औद्योगीकरण ने जोर पकड़ा है। बांध, खनन परियोजनाएँ और औद्योगिक इकाइयों के लिए आदिवासियों को उनकी जमीन से विस्थापित किया गया। इसके फलस्वरुप नक्सलवाद जो देश में शुरु हो चुका था। इस क्षेत्र में भी सामाजिक-आर्थिक असमानता और शोषण के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन के रुप में उभरा और इस इलाके को जटिल बना दिया।
नक्सली उन्मूलन और सलवा जुड़ुम – एक विवादास्पद अभियान
छत्तीसगढ़ सरकार ने जब सलवा जुडूम अभियान वर्ष 2000 में नक्सलवाद के खिलाफ एक “जन-आंदोलन” के रुप में शुरुआत किया, वास्तव में एक विवादास्पद और हिंसक अभियान साबित हुआ। इस अभियान के तहत आदिवासियों को उनके गाँवों से जबरन हटाया गया। उन्हें शिविरों में रहने के लिए मजबूर किया गया और कई बार उनके बीच आपसी संघर्ष को बढ़ावा दिया गया। सलवा जुड़ुम के नाम पर हजारों लोग मारे गए, गाँव खाली करा दिए गए और लाखों लोग अपने घर, जमीन, और संस्कृति से वंचित होकर पलायन करने को मजबूर हुए। इस अभियान को नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई के रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन कई मानवाधिकार संगठनों और स्वतंत्र जांच एजेसिंयो ने इससे आदिवासियों के खिलाफ एक सुनियोजित हिंसा के रुप में उजागर किया। सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में सलवा जुड़ुम को असंवैधानिक और गैरकानूनी घोषित करते हुए इसे बंद करने का आदेश दिया, लेकिन तब तक इसने बस्तर के सामाजिक ताने-बाने को अपूरणीय क्षति पहुँचाई थी।
पुलिस और अर्धसैनिक बलों की तैनाती – सुरक्षा या शोषण ?
नक्सल उन्मूलन के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा बस्तर में भारी संख्या में पुलिस और अर्धसैनिक बलों की तैनाती की गई है। अत्याधुनिक हथियारों और संसाधनों से लैस ये बल कथित तौर पर नक्सलियों को खत्म करने और क्षेत्र में शांति स्थापित करने के लिए तैनात किए गए हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह तैनाती वास्तव में आदिवासियों के हित में है? जमीनी हकीकत कुछ और कहती है। कई बार देखा गया है कि इन मुठभेड़ों में निर्दोष आदिवासी मारे गए हैं, जिन्हें नक्सली बताकर मामले को दबा दिया गया। मानवाधिकार संगठनों,जैसे कि Amnesty International और People’s Union for Civil Liberties (PUCL) ने ऐसे कई मामलों की जांच में पाया कि मुठभेड़ें अक्सर “फर्जी” होती हैं, जिनमें आदिवासियों को निशाना बनाया जाता है। इसके अलावा इन अभियानों ने आदिवासियों को उनकी जमीन से विस्थापित करने का भी काम किया, जिससे कॉरपोरेट हितों के लिए रास्ता साफ हुआ। कॉरपोरेट हित और प्राकृतिक संसाधनों की लूट, बस्तर के जंगलों और खदानों में लौह अयस्क, कोयला और अन्य खनिजों की प्रचुरता इसे कॉरपोरेट घरानों के लिए यह उर्वर इलाका है। टाटा,एस्सार, जिंदल और अन्य बड़े कॉरपोरेट समूहों ने इस क्षेत्र में खनन और औद्योगिक परियोजनाओं के लिए समझौते किए हैं। लेकिन इन परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण और जंगल की कटाई जरूरी है, जो आदिवासियों के जीवन और आजीविका को सीधे प्रभावित करता है।आदिवासियों को उनकी जमीन से हटाने के लिए नक्सलवाद को एक सुविधाजनक बहाना बनाया गया। सलवा जुड़ुम और नक्सल उन्मूलन अभियानों के जरिए गाँवों को खाली कराया गया, जिससे खनन कंपनियों को बिना किसी विरोध के जमीन हासिल करने में आसानी हुई। पंचायती राज (PESA) अधिनियम, 1996 और वन अधिकार अधिनियम, 2006 जैसे कानून, जो आदिवासियों को उनकी जमीन और संसाधनों पर अधिकार देते हैं, इसको बार-बार नजरअंदाज किया गया। इसके अलावा खनन परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभाव को भी अनदेखा किया गया। जंगलों की कटाई, नदियों का प्रदूषण, और जैव-विविधता का नुकसान इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी को नष्ट कर रहा है, जिसका सबसे ज्यादा असर आदिवासियों पर पड़ता है, जो प्रकृति पर निर्भर हैं।
संवैधानिक अधिकारों का हनन
भारत का संविधान अनुसूचित जनजातियों को विशेष सुरक्षा और अधिकार प्रदान करता है। पांचवीं और छठी अनुसूची, PESA, और वन अधिकार अधिनियम जैसे प्रावधान आदिवासियों को उनकी जमीन, संस्कृति और स्वायत्तता की रक्षा करने का हक देते हैं। लेकिन बस्तर में इन अधिकारों का व्यवस्थित रूप से उल्लंघन हुआ है।आदिवासियों को बिना उनकी सहमति के विस्थापित किया गया, उनकी ग्राम सभाओं को नजरअंदाज किया गया और उनके विरोध को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लिया गया। यह न केवल संवैधानिक अधिकारों का हनन है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ भी है।
विकास का भ्रामक मॉडल
सरकार और कॉरपोरेट समूह द्वारा दावा किया जाता रहा है कि खनन और औद्योगिक परियोजनाओं से क्षेत्र में विकास होगा। लेकिन सवाल यह है कि यह विकास किसके लिए है ? बस्तर के आदिवासियों को इन परियोजनाओं से कोई लाभ नही मिला है। यह न तो उन्हें रोजगार दे पाया, न ही उनके लिए बुनियादी सुविधाएँ जैसे स्कूल,अस्पताल या सड़क ही विकसित की गईं। इसके विपरीत इन परियोजनाओं ने उनकी आजीविका, संस्कृति और पर्यावरण को नष्ट किया है। विकास का यह मॉडल कॉरपोरेट हितों को प्राथमिकता देता है, जिसमें आदिवासियों की कोई हिस्सेदारी नहीं है। यह एक ऐसा विकास है, जो कुछ पूँजीपतियों को समृद्ध करता है, जबकि स्थानीय समुदायों को गरीबी, विस्थापन और हिंसा के दलदल में धकेलता है। एक मानवीय और सामाजिक त्रासदी छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में नक्सल उन्मूलन, सलवा जुड़ुम और कॉरपोरेट परियोजनाओं के नाम पर आदिवासियों का शोषण एक गंभीर मानवीय और सामाजिक त्रासदी है। यह न केवल आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि यह भारत के लोकतांत्रिक और सामाजिक मूल्यों पर भी सवाल उठाता है। नक्सलवाद एक जटिल सामाजिक-आर्थिक समस्या है, जिसका समाधान हिंसा या बल प्रयोग से नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, समावेशी विकास और आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा से हो सकता है। सरकार को चाहिए कि वह आदिवासियों की ग्राम सभाओं को सशक्त करे, उनके अधिकारों का सम्मान करे और पर्यावरणीय रुप से टिकाऊ विकास मॉडल को अपनाए। बस्तर का दर्द केवल छत्तीसगढ़ तक सीमित नही है। यह उन सभी आदिवासी क्षेत्रों की कहानी है, जहाँ कॉरपोरेट लालच और सरकारी नीतियों ने स्थानीय समुदायों को हाशिए पर धकेल दिया है। इस त्रासदी को रोकने के लिए समाज, सरकार और नागरिकों को एकजुट होकर आदिवासियों के हक और सम्मान की लड़ाई सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी। केवल तभी बस्तर के जंगल फिर से आदिवासियों की हँसी और उनकी संस्कृति की गूँज से जीवंत हो सकेंगे।
(लेखक लक्ष्मीनारायण मुंडा, रांची झारखंड में रहते हैं, जो आदिवासी मामलों के जानकार, आन्दोलनकारी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)