सत्या पॉल की कलम से।
दिलीप मंडल, एक प्रमुख पत्रकार और लेखक, अपने विचारों और लेखन के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने हमेशा समाज में व्याप्त असमानताओं और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई है। उनकी सोच और लेखनी ने विशेष रूप से दलित और वंचित वर्ग के लोगों को जागरूक किया है, जिससे उन्हें इन वर्गों का समर्थन और स्नेह प्राप्त हुआ। लेकिन हाल ही में उनकी कुछ गतिविधियों और बयानों के कारण उनके प्रति विश्वासघात की भावना उत्पन्न हुई है। यह लेख इसी संदर्भ में उनके द्वारा किए गए विश्वासघात की चर्चा करेगा।
शुरुआती संघर्ष और पहचान
दिलीप मंडल ने अपने करियर की शुरुआत एक पत्रकार के रूप में की थी। वे सामाजिक मुद्दों पर बेबाकी से लिखते थे और उनके लेखों ने दलित समाज में नई जागरूकता फैलाई। मंडल का मानना था कि भारतीय समाज में जातिवाद और भेदभाव को समाप्त करने के लिए एक व्यापक सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता है। उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से इस आंदोलन को समर्थन दिया और विभिन्न मंचों पर दलित अधिकारों की पुरजोर वकालत की।
बदलती विचारधारा
हालांकि, हाल के वर्षों में दिलीप मंडल की विचारधारा में बदलाव देखने को मिला। कई लोग मानते हैं कि मंडल ने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए अपनी मूल विचारधारा से समझौता किया है। उनके बयानों और लेखों में वह आग और सच्चाई दिखाई नहीं देती जो पहले हुआ करती थी। उनके आलोचक कहते हैं कि मंडल ने अब अपनी आवाज को धीमा कर लिया है और कुछ मामलों में तो वह उन ताकतों का समर्थन करते दिखे हैं जिनके खिलाफ उन्होंने वर्षों तक संघर्ष किया।
मोदी की आलोचना करते करते करने लगे गुणगान
ये सभी बातें खुलकर तब सामने आ रही है जब दिलीप मंडल को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में मीडिया सलाहकार नियुक्त किया गया है। दिलीप मंडल का करीब दो दशक से ज्यादा का पत्रकारिता करियर रहा है। इस दौरान वह कई बड़े संस्थानों में कार्यरत रहे और कुछ अखबारों एवं पत्रिकाओं के लिए संपादक के तौर पर भी काम किया था। लंबे समय से दिलीप मंडल ओबीसी, एससी और एसटी समुदाय के मुद्दे उठाते रहे हैं। वह हिंदुत्व की राजनीति के आलोचकों में से एक माने जाते थे, लेकिन बीते लोकसभा चुनाव के दौरान उनका रुख बदला नजर आया था। उन्होंने मोदी सरकार के कई फैसलों की तारीफ की थी। यही नहीं हाल ही में लेटरल एंट्री से भर्ती वाले विज्ञापन को वापस लिए जाने के लिए भी उन्होंने मोदी सरकार को सराहा था।
विवादास्पद बयान और निर्णय
दिलीप मंडल के कुछ हालिया बयानों और निर्णयों ने उनके समर्थकों में गहरी नाराजगी पैदा कर दी है। एक समय था जब वे दलित अधिकारों के लिए हर मोर्चे पर लड़ने के लिए तैयार रहते थे, लेकिन अब वह मुद्दों पर तटस्थ या भ्रमित दिखाई देते हैं। उनके आलोचकों का मानना है कि उन्होंने अपने समर्थकों के साथ विश्वासघात किया है और अब वे उन शक्तियों के हाथों में खेल रहे हैं जो दलितों के हितों के खिलाफ हैं।
आलोचनाएं और प्रतिक्रियाएं
दिलीप मंडल के इस बदले हुए रुख ने दलित समुदाय में गहरा असंतोष उत्पन्न किया है। उनकी इस बदलती विचारधारा को लेकर सोशल मीडिया पर भी खूब बहस छिड़ी हुई है। उनके समर्थकों का एक बड़ा वर्ग अब उनसे दूरी बना रहा है, क्योंकि वे महसूस करते हैं कि दिलीप मंडल ने उनके साथ विश्वासघात किया है। वहीं, कुछ लोग मानते हैं कि मंडल अब केवल अपनी छवि को सुधारने और नए राजनीतिक समीकरण बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
दिलीप मंडल ने अपने ऊपर लगे आरोपों का बचाव करते हुए कहा है कि वह हमेशा से ही दलितों और वंचितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि उनके विचारों में बदलाव केवल समय और परिस्थितियों के अनुरूप हुआ है, जिसे उनके समर्थकों को समझने की आवश्यकता है। मंडल का मानना है कि उनकी आलोचना करना आसान है, लेकिन उन परिस्थितियों को समझना आवश्यक है जिनमें उन्होंने ये बदलाव किए हैं।
दिलीप मंडल के इस बदलते रुख और उनकी आलोचनाओं ने समाज में एक नई बहस को जन्म दिया है। एक तरफ उनके पुराने समर्थक उनके साथ विश्वासघात का आरोप लगाते हैं, तो दूसरी तरफ उनके नए विचारों के समर्थक मानते हैं कि मंडल ने जो भी किया, वह समाज के व्यापक हित में है।
समाज में नेताओं और विचारकों से हमेशा उच्च आदर्शों की अपेक्षा की जाती है, और जब वे उन आदर्शों से भटकते हैं, तो उनके समर्थकों में निराशा और विश्वासघात की भावना उत्पन्न होती है। दिलीप मंडल का मामला भी ऐसा ही है, जहां उनके कुछ निर्णयों ने उनके समर्थकों को ठगा हुआ महसूस कराया है।
समय ही बताएगा कि दिलीप मंडल के इस बदले हुए रुख का क्या प्रभाव होगा और क्या वे अपने समर्थकों के विश्वास को फिर से जीत पाएंगे या नहीं। लेकिन इतना निश्चित है कि उनके इस विश्वासघात ने दलित समाज में एक गहरे घाव को जन्म दिया है।