बुलेटिन इंडिया।
सत्या पॉल की कलम से ✒️
दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सत्ता संभालते ही एक नए विवाद ने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है। मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने मुख्यमंत्री कार्यालय में लगी भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर और शहीद भगत सिंह की तस्वीरों को उनकी मूल जगह से हटाकर दूसरे स्थान पर लगा दिया और उनकी जगह राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, महात्मा गांधी तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीरें लगा दी गईं। इस बदलाव पर आम आदमी पार्टी (AAP) और विपक्षी दलों ने कड़ा विरोध जताया, इसे दलित और आदिवासी विरोधी मानसिकता का परिचायक बताया और आशंका जताई कि यह संविधान परिवर्तन की दिशा में एक संकेत हो सकता है।
यह विवाद सिर्फ तस्वीरों के स्थान परिवर्तन का नहीं, बल्कि प्रतीकवाद, विचारधारा और राजनीतिक उद्देश्य से जुड़े गहरे मुद्दों का हिस्सा है। इस संपादकीय में हम इस विवाद के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे, इसके राजनीतिक निहितार्थों को समझने का प्रयास करेंगे और यह भी देखेंगे कि यह भारतीय लोकतंत्र और सामाजिक समरसता के लिए क्या संदेश देता है।
प्रतीकवाद और राजनीति
राजनीति में प्रतीकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। तस्वीरें, मूर्तियाँ और स्मारक किसी भी सरकार के विचारों और प्राथमिकताओं को प्रतिबिंबित करते हैं। डॉ. अंबेडकर भारतीय संविधान के निर्माता और समाज सुधारक थे, जबकि भगत सिंह स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी थे। इन दोनों का भारतीय लोकतंत्र और सामाजिक न्याय में अहम स्थान है। ऐसे में उनकी तस्वीरों को हटाना प्रतीकात्मक रूप से उनकी विचारधारा को दरकिनार करने जैसा माना जा सकता है।
दूसरी ओर, भाजपा सरकार द्वारा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, महात्मा गांधी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीरें लगाने को उसकी विचारधारा का परिचायक माना जा सकता है। महात्मा गांधी राष्ट्रपिता के रूप में संपूर्ण भारत में सम्मानित हैं, जबकि द्रौपदी मुर्मू देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति हैं। नरेंद्र मोदी भाजपा के शीर्ष नेता और वर्तमान प्रधानमंत्री हैं, जिनकी नीतियाँ सरकार की प्राथमिकताओं को दर्शाती हैं।
लेकिन विवाद इस तथ्य से उपजा है कि सरकार ने नई तस्वीरें लगाने के लिए पुरानी तस्वीरों की जगह बदली। क्या यह जानबूझकर किया गया कदम था? क्या यह भाजपा की एक सोची-समझी रणनीति थी जिससे वह अपने विचारधारा को और अधिक मजबूत कर सके?
विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया और भाजपा की सफाई
आम आदमी पार्टी ने इस बदलाव को भाजपा की “दलित और आदिवासी विरोधी मानसिकता” का प्रमाण बताया। AAP का तर्क है कि अंबेडकर और भगत सिंह भारतीय लोकतंत्र और क्रांतिकारी विचारधारा के स्तंभ हैं और उनकी तस्वीरों को हटाना केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि एक राजनीतिक संदेश देने का प्रयास है। AAP ने इस घटना को संविधान विरोधी मानसिकता से भी जोड़ा और आशंका जताई कि भाजपा धीरे-धीरे संविधान में परिवर्तन की दिशा में बढ़ रही है।
दूसरी ओर, भाजपा ने इस विवाद पर सफाई देते हुए कहा कि डॉ. अंबेडकर और भगत सिंह की तस्वीरें अभी भी कार्यालय में लगी हुई हैं, केवल उनका स्थान बदला गया है। भाजपा नेताओं का कहना है कि द्रौपदी मुर्मू देश की राष्ट्रपति हैं और उनका आदिवासी समाज से होना गर्व की बात है, इसलिए उनकी तस्वीर लगाना एक सम्मानजनक निर्णय है।
संविधान और सामाजिक न्याय की राजनीति
इस विवाद का सबसे गंभीर पहलू यह है कि इसे भारतीय संविधान और सामाजिक न्याय से जोड़ा जा रहा है। यह पहली बार नहीं है जब भाजपा पर संविधान बदलने की कोशिश करने का आरोप लगा है। विपक्षी दल लगातार यह आरोप लगाते रहे हैं कि भाजपा मनुवादी सोच को आगे बढ़ा रही है और दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कमजोर करने की कोशिश कर रही है।
हालांकि, भाजपा ने हमेशा यह तर्क दिया है कि वह अंबेडकर के विचारों का सम्मान करती है और दलितों तथा आदिवासियों के विकास के लिए कई योजनाएँ चला रही है। भाजपा यह भी दावा करती है कि उसने ही पहली बार देश को एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति दी, जो इस वर्ग के सशक्तिकरण का प्रमाण है।
लेकिन इस पूरे विवाद में बड़ा सवाल यह है कि क्या भाजपा सच में दलित और आदिवासी समाज को बराबरी का हक देने के लिए काम कर रही है, या यह केवल राजनीतिक फायदे के लिए किया गया कदम है?
लोकतंत्र में विचारधारा का टकराव
इस विवाद से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय राजनीति में विचारधारा का टकराव जारी है। भाजपा राष्ट्रवादी विचारधारा को बढ़ावा देना चाहती है, जबकि विपक्ष सामाजिक न्याय और संविधान बचाने के नाम पर भाजपा का विरोध कर रहा है।
हालाँकि, इस टकराव में जनता की भूमिका सबसे अहम है। यह जनता को तय करना होगा कि वह किस विचारधारा के साथ खड़ी होना चाहती है। क्या जनता भाजपा के इस कदम को एक साधारण प्रशासनिक निर्णय मानती है, या इसे एक गहरे राजनीतिक षड्यंत्र के रूप में देखती है?
समाप्ति: क्या यह सिर्फ तस्वीरों का बदलाव है?
दिल्ली में मुख्यमंत्री कार्यालय में तस्वीरों के स्थान परिवर्तन को मात्र एक सामान्य प्रशासनिक निर्णय नहीं माना जा सकता। यह एक राजनीतिक संदेश भी हो सकता है, जिसमें भाजपा अपनी विचारधारा को प्राथमिकता देने का प्रयास कर रही है। यह मामला केवल कार्यालय की दीवारों से जुड़ा नहीं है, बल्कि यह उस मानसिकता को दर्शाता है जो सरकार की प्राथमिकताओं को निर्धारित करती है।
यह विवाद इस बात का संकेत भी है कि भारत में राजनीति केवल नीतियों और विकास तक सीमित नहीं, बल्कि प्रतीकों, विचारधाराओं और इतिहास की व्याख्या पर भी निर्भर करती है। यह भी स्पष्ट करता है कि दलित और आदिवासी समुदायों को अभी भी राजनीतिक विमर्श के केंद्र में बने रहने की जरूरत है, ताकि उनकी पहचान और अधिकार सुरक्षित रह सकें।
आखिरकार, यह जनता को तय करना है कि वह इस विवाद को कैसे देखती है—एक साधारण बदलाव के रूप में या एक बड़े राजनीतिक षड्यंत्र के संकेत के रूप में। लेकिन एक बात तय है कि इस विवाद ने भारतीय राजनीति में एक नई बहस को जन्म दिया है, जो आने वाले समय में और भी गहरी हो सकती है।