•‘हूल दिवस’ पर भोगनाडीह में टकराव, आयोजन की गरिमा तार-तार।

•राजनीतिक दलों पर गरमाया माहौल, पूरे राज्य में भाजपा का पुतला दहन।

बुलेटिन इंडिया, डेस्क।

सत्या पॉल की कलम से ✒️ 

झारखंड के ऐतिहासिक ‘हूल दिवस’ के मौके पर संथाल विद्रोह की धरती भोगनाडीह में जो कुछ भी घटित हुआ, उसने इस गौरवशाली दिवस की गरिमा को गहरा आघात पहुंचाया है। राजकीय समारोह के समानांतर एक अन्य आयोजन के प्रयास को लेकर उत्पन्न विवाद ने न केवल आदिवासी समाज की भावनाओं को ठेस पहुंचाई, बल्कि यह प्रशासनिक और राजनीतिक विफलता का एक खुला उदाहरण भी बन गया।

⇒ कार्यक्रम की दशा बिगाड़ने में भाजपा की अहम भूमिका 

इस पूरे विवाद को लेकर विभिन्न पक्षों की प्रतिक्रियाएं सामने आ चुकी हैं, जिनमें भाजपा पर इस घटना के सूत्रधार होने के आरोप लगाए जा रहे हैं। इसके विरोध में झामुमो ने पूरे राज्य में भाजपा का पुतला दहन किया और भाजपा के दोहरे चरित्र का व्याख्यान किया। साथ हीं, राज्य सरकार की ओर से कार्यक्रम की सुरक्षा व्यवस्था और समन्वय को लेकर भी सवाल उठे हैं। आलोचकों का कहना है कि यदि प्रशासन सजग रहता और राजनीतिक पूर्व संकेतों को समय रहते समझता, तो इस प्रकार की अप्रिय स्थिति से बचा जा सकता था।

⇒ नामांकन प्रस्तावक से भाजपा नेता बने मंडल मुर्मू

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के राजनीतिक विरोध की पृष्ठभूमि में यह घटना और भी गंभीर मानी जा रही है। उल्लेखनीय है कि पिछली विधानसभा चुनावों में बरहेट सीट से हेमंत सोरेन के नामांकन के समय मंडल मुर्मू उनके प्रस्तावक बने थे। किंतु कुछ ही दिनों बाद वे भाजपा में शामिल हो गए। इस दौरान उन्हें देवघर ले जाकर भाजपा के शीर्ष नेताओं असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा, केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान, सांसद निशिकांत दुबे आदि की उपस्थिति में पार्टी में शामिल कराया गया।

 

⇒ भाजपा की सोची समझी रणनीति बनी विवाद का कारण

इस वर्ष ‘हूल दिवस’ पर मंडल मुर्मू के नेतृत्व में भाजपा की सोची समझी रणनीति बनी और एक समानांतर आयोजन की कोशिश की गई। स्थानीय प्रशासन ने जब इस आयोजन की अनुमति नहीं दी, तो विवाद गहराता गया। आरोप है कि मंडल मुर्मू समर्थकों ने उस पार्क को ताले से बंद कर दिया जहां सिदो-कान्हू की प्रतिमा स्थापित है। उनका आग्रह था कि वे पहले वहां जाएंगे, उसके बाद ही शेष लोग चाहे वे नेता हों या अधिकारी प्रवेश करेंगे। इसी मुद्दे को लेकर विवाद इतना बढ़ गया कि टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई।

 

⇒ हेमंत सोरेन की अनुपस्थिति भी रही निर्णायक

हर वर्ष इस अवसर पर भोगनाडीह पहुंचने वाले हेमंत सोरेन इस बार दिल्ली में गुरुजी (शिबू सोरेन) की तबीयत खराब होने के कारण उपस्थित नहीं हो सके। भाजपा ने यह अवसर का राजनीतिक फायदा लेने का प्रयास किया। स्थानीय लोगों और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर मुख्यमंत्री स्वयं उपस्थित रहते, तो शायद इस तरह की स्थिति उत्पन्न ही नहीं होती।

 

समाज के कुछ प्रबुद्धजनों और हूल आंदोलन से जुड़े लोगों का कहना है कि यह दिवस मूलतः जनता के उत्सव है। लेकिन कुछ नफरती राजनीति करने वालों ने ‌इस पावन दिवस को अपना राजनीतिक लाभ लेने के लिए रणनीति बनाई और कार्यक्रम का बेड़ा गर्ग कर दिया। पुराने दिनों की याद दिलाते हुए कुछ लोगों ने कहा कि पहले गुरुजी जैसे बड़े नेता भी साधारण सी दरी पर बैठकर स्थानीय जनजातीय नृत्य-गान में शामिल होते थे। लेकिन कार्यक्रम के जरिए अपना राजनीतिक चमकाने वालों को किसी के शहादत या बलिदान से कोई सरोकार नहीं होता।

 

⇒ आदिवासी प्रतिनिधित्व और राजनीतिक पकड़ पर उठे सवाल

विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा हो या झामुमो—दोनों दलों की राजनीति में स्थानीय आदिवासियों की प्रत्यक्ष भागीदारी लगातार कम होती जा रही है। आरोप है कि भाजपा बड़े पैमाने पर धनबल के सहारे आदिवासी युवकों, जैसे कि मंडल मुर्मू, को अपने पक्ष में कर रही है। वहीं, झामुमो पर भी गैर-आदिवासी प्रतिनिधियों और अल्पसंख्यक चेहरों के जरिए स्थानीय जनमानस से कटने का आरोप है।

 

⇒ सिदो-कान्हू के वंशज आज भी उपेक्षित, सता में सबसे ज्यादा समय भाजपा का हीं रहा 

इस विवाद ने एक बार फिर उस कटु सच्चाई को उजागर किया है कि सिदो-कान्हू जैसे अमर बलिदानियों के वंशज आज भी मेहनत-मजदूरी कर जीवन यापन कर रहे हैं। न तो उनके लिए आदर्श ग्राम की योजना साकार हो सकी, न शिक्षा या रोजगार के अवसर ही बढ़े। हर वर्ष उन्हें अंगवस्त्र देकर सम्मानित जरूर किया जाता है, परंतु उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। जबकि सता में सबसे ज्यादा समय भाजपा ने ही बागडोर संभाली है।

 

‘हूल दिवस’ को लेकर उत्पन्न यह विवाद झारखंड की राजनीति में आदिवासी अस्मिता की लड़ाई, प्रशासनिक सजगता, और दलों के स्थानीय जुड़ाव की सच्चाई को उजागर करता है। सवाल यह है कि क्या आने वाले समय में राज्य के राजनीतिक दल और प्रशासन आदिवासियों के ऐतिहासिक प्रतीकों और भावनाओं का सम्मान कर पाएंगे, या ये आयोजन केवल शक्ति प्रदर्शन और वर्चस्व की राजनीति का मंच बनकर रह जाएंगे?

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