संपादकीय : न्यायपालिका पर हमला — लोकतंत्र और संविधान के लिए गहरी चिंता का विषय
Bulletin India.
सत्या पॉल की कलम से ✒️
भारतीय लोकतंत्र का सबसे मज़बूत स्तंभ न्यायपालिका मानी जाती है। यह वही संस्था है, जो सत्ता, संपत्ति और समाज की अन्यायपूर्ण असमानताओं के बीच संविधान के सिद्धांतों को जीवित रखती है। किंतु बीते दिनों जो शर्मनाक घटना देश की सर्वोच्च अदालत के प्रधान न्यायाधीश, माननीय वी. आर. गवई के साथ घटी—वह केवल एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि पूरे भारतीय न्याय तंत्र, लोकतंत्र और संविधान की आत्मा पर हमला है।
सर्वोच्च न्यायालय के परिसर में मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंकने का प्रयास मात्र एक “व्यक्तिगत विरोध” नहीं था, बल्कि यह उन संकीर्ण और घातक मानसिकताओं की अभिव्यक्ति है जो आज भी भारतीय समाज में जातिवाद और मनुवाद के ज़हर को जीवित रखे हुए हैं। जब किसी दलित या वंचित वर्ग के व्यक्ति को सत्ता या सम्मान के उच्चतम पद पर देखा जाता है, तो कुछ मनुवादी विचारधाराओं के अनुयायियों को यह नागवार गुजरता है। यह सोच, इस देश के समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्यों के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
⇒ मनुवादी मानसिकता की जड़ें और उसका विस्तार
भारत में जातिवाद केवल सामाजिक समस्या नहीं, बल्कि ऐतिहासिक रूप से स्थापित एक मानसिक गुलामी का प्रतीक रहा है। सदियों तक दलित और पिछड़े वर्गों को न केवल सामाजिक रूप से हाशिए पर रखा गया, बल्कि उन्हें शिक्षा, धर्म और सत्ता से भी दूर रखा गया। संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इसी अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष किया और एक ऐसे भारत का सपना देखा, जहां किसी भी नागरिक को उसकी जाति, धर्म या जन्म के आधार पर भेदभाव का सामना न करना पड़े।
लेकिन दुखद है कि स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी कुछ लोग “मनु के कानून” की मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाए हैं। जब कोई दलित व्यक्ति न्यायपालिका, प्रशासन, राजनीति या धर्म के मंच पर सर्वोच्च पद प्राप्त करता है, तो यह मनुवादी सोच के लिए “सिस्टम की असहनीय बगावत” लगती है।
मुख्य न्यायाधीश वी. आर. गवई की नियुक्ति और उनके निर्णयों को लेकर जिस तरह से कुछ संगठनों और व्यक्तियों ने असभ्य और अपमानजनक व्यवहार किया, वह इस बात का प्रमाण है कि मनुवादी ताकतें आज भी समाज में जहर घोलने का प्रयास कर रही हैं। यह न केवल असंवैधानिक है, बल्कि लोकतंत्र की गरिमा के खिलाफ भी है।
⇒न्यायपालिका की गरिमा और देश की अखंडता पर हमला
भारत का संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि न्यायपालिका स्वतंत्र है और उसके निर्णयों की आलोचना केवल संवैधानिक सीमाओं के भीतर ही की जा सकती है। किसी भी न्यायाधीश या संस्थान पर व्यक्तिगत या हिंसक हमले का कोई औचित्य नहीं है। यह घटना इस बात का संकेत देती है कि कुछ लोग भारत की संस्थाओं में बैठे दलित और पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों को मानसिक रूप से स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।
यह केवल वी. आर. गवई पर हमला नहीं था — यह उस सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया पर हमला था जो अंबेडकर, फुले, पेरियार, कांशीराम जैसे महापुरुषों के संघर्षों से निकली है।
जब मनुवादी विचारधारा कहती है कि “दलित मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकता”, तो यही विचार आगे चलकर यह सवाल भी उठाती है — “क्या दलित न्याय नहीं कर सकता? क्या दलित न्यायाधीश सर्वोच्च पद पर बैठने योग्य नहीं?” यही सोच लोकतंत्र की सबसे बड़ी दुश्मन है।
⇒धर्म और समानता के बीच सुलगता संघर्ष
आज भी कई मंदिरों में दलित राष्ट्रपति या मंत्री के प्रवेश को लेकर विवाद होता है। उनके प्रवेश के बाद “मंदिर को धोया जाना” जैसी घटनाएं हमारी आधुनिकता के माथे पर कलंक हैं। यह केवल अंधविश्वास नहीं, बल्कि मनुवाद की जड़ में छिपी हुई सामाजिक घृणा है।
एक तरफ देश “विश्वगुरु” बनने की बात करता है, दूसरी ओर अपने ही नागरिकों को जाति के नाम पर अपमानित करता है। यह विरोधाभास हमारे नैतिक पतन को उजागर करता है।
यदि भारत को सच में विश्वगुरु बनना है, तो उसे पहले मनुवाद, जातिवाद और धार्मिक कट्टरता के जहर से खुद को मुक्त करना होगा। संविधान का “समानता का सिद्धांत” केवल किताबों में नहीं, समाज के व्यवहार में दिखना चाहिए।
⇒ सर्वधर्म समभाव ही विकास का मार्ग
भारत की शक्ति उसकी विविधता में है। चाहे वह धर्म हो, जाति हो या संस्कृति — जब तक सबका सम्मान और बराबरी सुनिश्चित नहीं होती, तब तक वास्तविक विकास संभव नहीं है। दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलाएँ — ये सभी उस भारत के निर्माण की रीढ़ हैं जिसे संविधान ने “समता, न्याय और बंधुत्व” के आदर्श पर गढ़ा है।
सर्वधर्म समभाव का अर्थ केवल धार्मिक सहिष्णुता नहीं, बल्कि सामाजिक समानता का भी विस्तार है। जब तक समाज के हर वर्ग को सम्मान नहीं मिलेगा, तब तक लोकतंत्र अधूरा रहेगा।
⇒न्यायपालिका पर भरोसा और समाज की जिम्मेदारी
आज देश की जनता को यह समझना होगा कि न्यायपालिका पर हमला, किसी एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि पूरे लोकतंत्र पर आघात है। न्यायपालिका वह मंच है जहां से गरीब, दलित, आदिवासी और शोषित वर्गों को आवाज़ मिलती है। यदि इसी मंच की गरिमा को नुकसान पहुंचाया गया, तो यह उन करोड़ों लोगों की उम्मीदों को तोड़ देगा जो न्याय के लिए इसी संस्था पर भरोसा करते हैं।
सरकार और समाज — दोनों की जिम्मेदारी है कि ऐसे तत्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो, जो नफरत फैलाने या जातिवादी विष उगलने का काम करते हैं। साथ ही, शिक्षा और सामाजिक जागरूकता के माध्यम से हमें एक ऐसी पीढ़ी तैयार करनी होगी जो जाति या धर्म नहीं, बल्कि मानवता और समानता को प्राथमिकता दे।
मुख्य न्यायाधीश वी. आर. गवई पर हुआ हमला एक चेतावनी है कि भारत में मनुवाद की जड़ें अब भी गहरी हैं। लेकिन यह आह्वान भी है — कि यदि हमें संविधान बचाना है, तो सामाजिक एकता, समानता और न्याय की भावना को और मजबूत करना होगा।
आज आवश्यकता है उस अंबेडकरवादी सोच की, जो कहती है — “शिक्षित बनो, संगठित बनो, संघर्ष करो।”
क्योंकि जब तक जाति, धर्म और मनुवाद की जंजीरें टूटी नहीं होंगी, तब तक भारत का लोकतंत्र अधूरा रहेगा।
👉 न्यायपालिका पर हमला वास्तव में भारत के संविधान, लोकतंत्र और मानवता पर हमला है — और इसका प्रतिरोध हर उस नागरिक को करना होगा जो खुद को भारतीय कहने में गर्व महसूस करता है।