बुलेटिन इंडिया, संवाददाता।

रांची। 17 फरवरी 2022 को अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन सहित कई महिला संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अल्बर्ट एक्का चौक, रांची में पिछले 10 फरवरी को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ प्रतिरोध मार्च किया। यह मामला 2017 की एक घटना से जुड़ा है, जिसमें पति ने अपनी पत्नी के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध अप्राकृतिक यौन संबंध बनाए और इस दौरान उसने पीड़िता के गुदा में हाथ डाला। दर्द से तड़पती पीड़िता को अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां से पुलिस को रिपोर्ट दी गई और पति के खिलाफ मामला दर्ज हुआ। पीड़िता ने अपना बयान देने के बाद, उसी दिन इलाज के दौरान अस्पताल में दम तोड़ दिया।

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अदालत का कहना है कि धारा 377 के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध के मामले में भी, धारा 375 (बलात्कार) के तहत परिभाषित सहमति की जरूरत नहीं है क्योंकि यह पति-पत्नी के बीच का मामला है। अदालत यह भी कहती है कि- “भारतीय दंड संहिता की धारा 375 की परिभाषा के अनुसार, अपराधी को ‘पुरुष’ के रूप साफ तौर पर वर्गीकृत किया गया है। इस मामले में, अपीलकर्ता ‘पति’ है और पीड़िता ‘महिला’ है, जो उसकी ‘पत्नी’ भी है। इसके अलावा, वे शरीर के वे ही अंग हैं जिनसे शारीरिक संबंध बनाया जाता है। इसलिए, पति-पत्नी के बीच यह अपराध धारा 375 के तहत नहीं आता, क्योंकि इस धारा में किए गए संशोधन के कारण और दोनों धाराओं के बीच असंगति को देखते हुए, यह अपराध बनता ही नहीं।”

इसके अलावा, अदालत यह भी कहती है कि पीड़िता के मृत्युपूर्व बयान पर भरोसा नहीं किया जा सकता और तकनीकी कारणों से इसे सबूत के रूप में स्वीकार नहीं किया गया।

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सुप्रीम कोर्ट में वैवाहिक बलात्कार अपवाद को हटाने के लिए कई याचिकाएँ दायर की गई हैं, जिनका केंद्र सरकार ने विरोध किया है। केंद्र का तर्क है कि विवाह में सहमति की परिभाषा अलग होती है, और पति-पत्नी के बीच एक-दूसरे के साथ यौन संबंध बनाने की निरंतर अपेक्षा होती है। सरकार का कहना है कि यह मुद्दा नाजुक कानूनी संतुलन की मांग करता है, और यदि संसद को लगता है कि विवाह संस्था को बनाए रखने के लिए वैवाहिक बलात्कार का अपवाद आवश्यक है, तो अदालत को इसे समाप्त नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह बहुत कठोर कदम होगा।

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सरकार का यह रुख दर्शाता है कि वह दकियानूसी और पितृसत्तात्मक सोच को थामे हुए है, और महिलाओं के शरीर पर अधिकार को विवाह की पवित्रता के नाम पर कुर्बान करने पर तुली है। यह भाजपा की केंद्र सरकार के उस पितृसत्तात्मक एजेंडे को उजागर करता है, जो महिलाओं के अधिकारों से अधिक, महिला-विरोधी विचारों को प्राथमिकता देता है।

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के एक संवैधानिक अदालत होने के नाते, यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि एक महिला के अधिकार-चाहे वह विवाहित क्यों न हो-जैसे कि समानता का अधिकार, अपने शरीर पर नियंत्रण का अधिकार, चुनाव की आज़ादी, और सम्मान के साथ जीने का अधिकार, सुरक्षित रहें। लेकिन अदालत ने संघर्षों से हासिल किए गए अधिकारों को नज़रअंदाज़ करके, कानून की दकियानूसी और पिछड़ी धारणाओं को बढ़ावा दिया है, जो संविधान के बुनियादी वसूलों के खिलाफ है।

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इसके अतिरिक्त, अदालत ने संवैधानिक नैतिकता और महिलाओं के शारीरिक स्वायत्तता के अधिकार को भी नजरअंदाज किया है, जिसमें यह अधिकार शामिल है कि वे यौन संबंधों से इनकार कर सकें, चाहे दूसरा पक्ष उनका पति ही क्यों न हो। हम मांग करते हैं कि विधायिका भारतीय दंड संहिता में बलात्कार से जुड़े प्रावधानों से वैवाहिक बलात्कार अपवाद को हटाए और ऐपवा सहित भारत के महिला आंदोलन की दशकों पुरानी मांग को माना जाए।

इस कार्यक्रम में मुख्य रूप से लीना पादम, रोज मधु, सिसलिया जी, कांता बारा, एती तिर्की, सिस्टर मेंरीना, इंद्राणी,सलोमी, एंजेला कुजूर, ललिता तिर्की, स्मृति नाग, नंदिता भट्टाचार्य, सामाजिक कार्यकर्ता एलिस मिंज, हीरा व मंथन वगैरह भी शामिल थे।

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