बुलेटिन इंडिया।

लक्ष्मी नारायण मुंडा की कलम से ✒️

बस्तर, छत्तीसगढ़ का वह इलाका है जो अपनी प्राकृतिक समृद्धि और आदिवासी संस्कृति के लिए जाना जाता है। यह क्षेत्र दशकों से शोषण, दमन और संघर्ष की कहानी का गवाह रहा है। यह लेख 1988 से बस्तर के साथ 37 साल के गहरे नाते रखने वाले एक महान व्यक्तित्व के धनी सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के अनुभवों और वहां की जमीनी हकीकत पर आधारित है। यह कहानी न केवल आदिवासियों के दर्द और उनकी लड़ाई को उजागर करती है, बल्कि नक्सलवाद के उदय इसके प्रभाव और सरकार की नीतियों के परिणामों को भी सामने लाती है। बस्तर में शोषण की शुरुआत 1980 के दशक से पहले बस्तर के आदिवासी समाज को व्यवस्थित शोषण का शिकार होना पड़ता था। फॉरेस्ट गार्ड, पुलिस और पटवारी जैसे सरकारी मुलाजिम आदिवासियों की मजबूरी का फायदा उठाते थे। एक लकड़ी के बदले औरतों से बलात्कार, गले तक पानी में खड़ा रखना, मुर्गी, बकरी, शराब और जबरन शारीरिक संबंध जैसे अत्याचार वहाँ आम थे। पटवारी जमीन छीनने की धमकी देकर आदिवासियों का शोषण करते थे। इस दौर में भारत का संविधान जो समानता और न्याय का वादा करता है, बस्तर के आदिवासियों के लिए कागजी साबित हुआ।

 

नक्सलवाद का उदय : आदिवासियों का साथी

________________________________

1984 के आसपास नक्सलवादी बस्तर पहुंचे। ये पढ़े-लिखे, आदर्शवादी वामपंथी युवक-युवतियां थे, जो बंदूक और विचारधारा के साथ आए। उन्होंने आदिवासियों को उनके शोषण के खिलाफ संगठित होना और प्रतिरोध करना सिखाया। फॉरेस्ट गार्ड, पुलिस और पटवारी जैसे शोषकों को पकड़कर सार्वजनिक रुप से सजा दी गई। गांव की महिलाओं को थप्पड़ मारने और अपमानित करने का मौका दिया गया। यह वह दौर था जब आदिवासियों को पहली बार अपनी ताकत का एहसास हुआ। नक्सलवादियों ने वह काम किया, जो संविधान को करना चाहिए था। वह था—आदिवासियों को उनका हक और सम्मान दिलाने की शुरुआत।आदिवासियों ने नक्सलवादियों को अपने परिवार का हिस्सा मान लिया। उनके लिए ये लोग न केवल विद्रोही थे, बल्कि अपने हक की लड़ाई में साथी भी थे।

 

पूंजीवाद और सलवा जुड़ुम : नया शोषण

_______________________________

1990 के दशक में नई आर्थिक नीतियों के बाद राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पूंजीपतियों की नजर बस्तर की जल,जंगल और जमीन पर पड़ी। आदिवासियों और नक्सलवादियों ने मिलकर इस लूट का विरोध किया। इसके जवाब में 2005 में छत्तीसगढ़ की तत्कालीन भाजपा सरकार ने सलवा जुड़ुम शुरू किया, जिसे एक जन-आंदोलन के रुप में पेश किया गया, लेकिन यह आदिवासियों के खिलाफ क्रूर अभियान साबित हुआ।644 गांवों में आदिवासियों के घर जलाए गए। हजारों की हत्या, महिलाओं और नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार, बिजली के झटके और अमानवीय यातनाएं दी गईं। जब सीबीआई जांच करने गई उस पर भी हमला हुआ और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया। इसके खिलाफ सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने स्वयं 522 मामले सुप्रीम कोर्ट में पेश किए, लेकिन 2009 में उनके गांधीवादी आश्रम पर बुलडोजर चला दिया गया। उन पर पांच बार उनकी हत्या की कोशिश हुई और 2010 में उन्हें तड़ीपार कर दिया गया।

 

सोनी सोरी और लिंगा कोड़ोपी : मानवाधिकार की आवाज

___________________________

सामाजिक मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के बाद सोनी सोरी और लिंगा कोड़ोपी ने आदिवासियों के हक की लड़ाई को आगे बढ़ाया। लेकिन पुलिस ने उन्हें भी नही बख्शा। लिंगा के साथ क्रूर यातनाएं की गईं और सोनी सोरी को थाने में नंगा कर बिजली के झटके दिए गए। दोनों पर झूठे नक्सलवादी केस बनाए गए, लेकिन बाद में अदालत ने उन्हें बरी कर दिया। यह दिखाता है कि सरकार की नीति आदिवासियों और उनके समर्थकों को दबाने की थी।

वर्तमान और भविष्य : एक लंबी लड़ाई

_____________________________

आज सरकार नक्सलवादियों के खिलाफ सफाई अभियान चला रही है, जिसका असल मकसद जल, जंगल और जमीन को पूंजीपतियों के हवाले करना है। लेकिन सवाल यह है कि आदिवासी क्या करेगा? क्या वह अपनी जमीन छोड़कर चुपचाप मर जाएगा ? सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता गांधीवादी हिमांशु कुमार का मानना है कि यह लड़ाई खत्म नही हुई है। आदिवासी अपने तीर-धनुष और जज्बे के साथ डटकर मुकाबला करेंगे और देश के नौजवान उनके साथ खड़े होंगे। बस्तर की कहानी केवल शोषण और दमन की नही, बल्कि प्रतिरोध और हक की लड़ाई की भी है। नक्सलवाद ने वहां के आदिवासियों को आवाज दी, लेकिन सरकार की नीतियों ने इस आवाज को कुचलने की कोशिश की। यह लड़ाई संविधान,लोकतंत्र और मानवाधिकारों की रक्षा की लड़ाई है। यह केवल बस्तर की नही, बल्कि पूरे देश की लड़ाई है, जो तब तक चलेगी, जब तक जल,जंगल और जमीन पर आदिवासियों का हक बरकरार है। जब तक शोषण जुल्मों का दौर चलेगा, यह लड़ाई कभी रुकने वाली नही है। इस बात को जितना जल्दी शासक वर्ग और सत्ता-सरकार के लोग स्वीकार कर लें । देश और जनहित के लिए उतना ही अच्छा होगा।

(लेखक लक्ष्मीनारायण मुंडा, रांची झारखंड से हैं, आन्दोलनकारी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

 

By admin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *