अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस पर विशेषांक।
विशद कुमार।
बुलेटिन इंडिया, डेस्क।
हर वर्ष भारत ही नहीं वरन पूरी दुनिया में 1 मई को मजदूर दिवस (Labour Day) मनाया जाता है। इसकी शुरुआत 1886 में अमेरिका से हुई, लेकिन धीरे-धीरे यह दुनिया के कई देशों में मनाया जाने लगा। यहां मजदूर दिवस का मतलब सिर्फ़ मजदूरों से नहीं बल्कि हर उस शख्स से है, जो नौकरी करता है। मजदूर दिवस का महत्व पूरी दुनिया के लिए खास है, क्योंकि इसके बाद से ही काम के घण्टे आठ होना शुरू हुवे, जिन्होंने पूरी दुनिया के नौकरीपेशा लोगों के जीवन को आसान बनाया और सभी कर्मचारीयों को आठ घण्टे काम का समय मिला। आइए इस दिन के महत्व और इतिहास को विस्तार से जानते हैं।
अमेरिका में मजदूर दिवस शुरू होने के 34 साल बाद, और 1 मई 1923 को भारत में भी मजदूर दिवस की शुरुआत हुई। भारत में पहली बार मजदूर दिवस चेन्नई में शुरू हुआ। लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान की अध्यक्षता में यह फैसला लिया गया। इस बैठक को कोई सारे संगठनों और सोशल पार्टी ने समर्थन दिया। आंदोलनों का नेतृत्व कम्युनिस्ट ताकतों ने किया।
आखिर 1 मई को ही हम मजदूर दिवस क्यूँ मनाते हैं?
पहले काम करने का समय सूर्य के निकलने से और डूबने तक माना जाता था मोटी तौर पर यही उस समय के काम के घण्टे थे। चौदह, सोलह और यहाँ तक कि अट्ठारह घण्टे का कार्यकाल भी तब आम बात थी। सदियों तक ऐसा ही चलता रहा पर उन्नीसवीं सदी को शुरुआत में ही अमेरिका में मजदूरों ने “सूर्य के निकलने से और डूबने तक” तक के काम के समय के विरोध में अपनी शिकायतें जता दी थीं। 1806 में अमेरिका की सरकार ने फिलाडेल्फिया के हड़वाली मोचियों के नेताओं पर साज़िश के मुकदमे चलाये। इन मुक़दमों में यह बात सबके सामने आयी कि मजदूरों से उन्नीस या बीस घण्टों तक काम कराया जा रहा था।
मैकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया को, जो दुनिया की पहली ट्रेड यूनियन मानी जाती है, 1827 में फिलाडेल्फिया में काम के घण्टे दस करने के लिए निर्माण उद्योग के मजदूरों की एक हड़ताल करवाने का श्रेय जाता है। 1834 में न्यूयॉर्क में नानबाइयों की हड़ताल के दौरान “बर्किंग मेन्स एडवोकेट’ नामक अखबार ने छापा था कि “पावरोटी उद्योग में लगे कारीगर सालों से मिश्र के गुलामों से भी ज्यादा यातनाएं झेल रहें हैं। उन्हें हर चौबीस में से औसतन अट्ठारह से बीस घण्टों तक काम करना होता है।” उन इलाकों में दस घण्टे के कार्य दिवस को इस माँगने जल्दी हो एक आन्दोलन का रूप ले लिया। यह आन्दोलन दिन पर दिन विकसित होता गया और इसी के चलते वॉन ब्यूरेन की संघीय सरकार को सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए काम के घण्टे दस करने की घोषणा करनी पड़ी। पूरे विश्व भर में काम के घण्टे दस करने का संघर्ष अगले कुछ दशकों में शुरू हो गया। जैसे ही यह माँग कई उद्योगों में मान ली गयी, वैसे ही मजदूरों ने काम के घण्टे आठ को माँग उठानी शुरू की। यह आन्दोलन मात्र अमेरिका तक ही सीमित नहीं था। यह आन्दोलन हर उस जगह प्रचलित हो चला था जहाँ उभरती हुई पूँजीवादी व्यवस्था के तहत मजदूरों का शोषण हो रहा था। यह बात इस तथ्य से सामने आती है कि अमेरिका से पृथ्वी के दूसरे छोर पर स्थित आस्ट्रेलिया में निर्माण उद्योग के मज़दूरों ने यह नारा दिया- “आठ घण्टे काम, आठ घण्टे मनोरंजन, आठ घण्टे आराम” और उनकी यह माँग 1856 में मान भी ली गयी।
अमेरिका में 1866 में नेशनल लेबर यूनियन के स्थापना हो जाती है और इस स्थापना समारोह में सभी मजदूरों ने मिलकर यह प्रतिज्ञा ली कि “इस देश के श्रमिकों को पूँजीवाद गुलामी से मुक्त करने के लिए वर्तमान समय की पहली और सबसे बड़ी जरूरत यह है कि अमेरिका के सभी राज्यों में आठ घण्टे के कार्य दिवस को सामान्य कार्य दिवस बनाने का कानून पास कराया जाये। जब तक यह लक्ष्य पूरा नहीं होता, तब तक हम अपनी पूरी शक्ति में संघर्ष करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं।” इसी समारोह में कार्य दिवस को आठ घण्टे करने का कानून बनाने की माँग के साथ ही स्वतन्त्र राजनीतिक गतिविधियों के अधिकार की माँग को उठाना भी बहुमत से पारित हुआ। साथ ही यह तय हुआ कि इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए “ऐसे व्यक्तियों का चुनाव किया जाये जो औद्योगिक वर्गों के हितों को प्रोत्साहित करने और प्रस्तुत करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हों।”
‘आठ घण्टा दस्तों’ (आठ घण्टे के कार्य दिवस की मांग के लिए बने मज़दूर संगठन) का यह निर्माण ‘नेशनल लेबर यूनियन’ द्वारा किये गये आन्दोलन का ही परिणाम था। और ‘नेशनल लेबर यूनियन की इन गतिविधियों के हो परिणामस्वरूप कई राज्य सरकारों ने आठ घण्टे के कार्य दिवस का कानून पास करना स्वीकार कर लिया था। अमेरिकी कांग्रेस ने ठीक वैसा ही कानून 1868 में प्रस्ताव दिया गया। इस काम के घण्टे आठ करो आन्दोलन की उत्प्रेरक नेता थीं बोस्टन की मेकिनिस्ट इरा स्टीवर्ड। अमेरिका में मजदूरों को मिली सफलता से अनेक देशों में मजदूर संगठित होकर काम के घण्टे आठ को लेकर जगह-जगह हड़ताल करने लगे। इन हड़तालों के दमन के लिए कई पूंजीवादी शासकों ने सैनिक दस्ते भेजें, जिनका मजदूरों ने बहादुरी से डटकर मुकाबला किया। इन संघर्षों का पूरे मजदूर आन्दोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उतने ही मजबूती से संघटित होकर संघर्ष किया।
अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर (द फेडरेशन आफ आर्गनाइज्ड ट्रेड एंड लेबर यूनियंस आफ द यूनाईटेड स्टेटस आफ कनाडा जो बाद में अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर के नाम से ही जाना गया) ने उस समय यह सम्भावना देखी कि आठ घण्टे के कार्य दिवस’ के नारे को एक ऐसे नारे की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है जो उन सारे मजदूरों को एक झण्डे के नीचे ला सकता है जो ना फेडरेशन में और ना ही ‘नाइट्स ऑफ लेबर’ में। (नाइट्स ऑफ लेबर’ मजदूरों का एक बहुत पुराना संगठन था जो लगातार बढ़ता जा रहा था) फेडरेशन यह समझ चुका था कि सभी मजदूर संगठनों के साथ मिलकर ही आठ घण्टे के कार्य दिवस के आन्दोलन को सफल बनाया जा सकता है। यही समझकर ‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर’ ने ‘नाइट्स ऑफ लेबर’ से इस आन्दोलन में सहयोग की अपील की।
फेडरेशन के 1885 के सम्मेलन में एक मई 1986 को हड़ताल पर जाने का संकल्प दोहराया गया। अलग-अलग दस्तकारी संगठनो को इस हड़ताल में शामिल करने के लिये जोड़ा गया जिसका पहली मई की हड़ताल के लिए हो रहे आन्दोलनों ने तुरन्त असर दिखना शुरू कर दिया। हड़ताली यूनियनों के सदस्यों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होने लगी। जिससे 1886 में मजदूरों का यह संगठन अपने शीर्ष पर पहुँच गया था। वह बात सामने आयी कि उस दौरान ‘नाइट्स ऑफ लेबर’ ने जो फेडरेशन से ज्यादा प्रसिद्ध था और एक बेहद जुझारू संगठन के रूप में जाना जाता था, अपने सदस्यों की संख्या दो लाख से बढ़ाकर सात लाख कर ली थी। फेडरेशन यह संगठन था जिसने इस आन्दोलन की शुरुआत की थी, और हड़ताल की तारीख निश्चित को थी, उसके सदस्यों की संख्या में भी वृद्धि हुई, और मजदूरों की एक बड़ी आबादी में उसका सम्मान भी काफी बढ़ गया।
मजदूरों में फूट डालने के लिये शासक वर्ग ने इस आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ के प्रमुख गद्दार टेरेंस पाउडरली को अपने में मिला लिया और जैसे-जैसे हड़ताल की तारीख करीब आती जा रही थी, यह बात खुलकर सामने आ ही गयी कि ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ के टेरेंस पाउडरली का नेतृत्व आन्दोलन को नुकसान पहुंचा रहा है, और यहीं नहीं वह अपने से जुड़ी यूनियनों को हड़ताल में हिस्सा न लेने की सलाह दे भी रहा था पर इसके बावजूद मजदूर अपने धुन में एक मई के हड़ताल को सफल बनाने में जुटा हुवा था। नाइट्स ऑफ़ लेबर के नेतृत्व की खुली गद्दारी के बावजूद तकरीबन 5 लाख मजदूर ‘काम के घण्टे आठ करो’, आन्दोलन में सिरकत किया और इधर फेडरेशन अभी भी लगातार मजदूरों के बीच लोकप्रिय होता जा रहा था। दोनों संगठनों के जुझारू मजदूर सदस्यों को कतारें लगातार, उत्साहपूर्वक हड़ताल की तैयारियों कर रही थी। कई शहरों में ‘आठ घण्टा दस्ते’ और इसी तरह के अन्य जत्थे उभरे इनके उभरने से पूरे आन्दोलन में मजदूरों के बीच जुझारूपन की भावना में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई। इस लहर से असंगठित मजदूर भी अछूते नहीं रहे, वे भी बढ़-चढ़कर आन्दोलन में हिस्सा लेने लगे। अमेरिकी मजदूर वर्ग के लिए एक नयी सुबह आ रही थी।
मजदूर 1 मई 1886 की महान हड़ताल की तैयारियाँ तो हो रहे, लेकिन 1885 में ही हड़तालों की संख्या में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हो गयी थी। 1881 से 1884 के दौरान हड़तालों और तालाबन्दियों का औसत था मात्र 500 प्रति वर्ष और उसमें भाग लेने वाले मजदूर थे औसतन 1.50,000 प्रति वर्ष 1885 में हाल और तालाबन्दियों की गिनती 500 से 700 तक जा पहुंची और भाग लेने वाले मजदूर संख्या 1.50,000 से बढ़कर 2.50,000 हो गयी। 1886 में हड़तालों की संख्या 700 से बढ़कर 1572 जा पहुंची और उसी अनुपात में हाल में तालाबन्दियों में हिस्सा लेने वाले मजदूरों भी बढ़कर 600000 हो गयी। इन हड़तालों की व्यापकता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1885 में इन हड़तालों से प्रभावित प्रतिष्ठानों की 1467 थी और अगले साल 1986 में बढ़कर 11562 जा पहुंची। एक साल के भीतर ही यह संख्या बढ़कर 1467 से 11.562 जा पहुँची। ‘नाइट्स ऑफ लेबर’ के नेतृत्व की खुली गद्दारी के बावजूद लगभग 5 लाख मजदूर “काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन में सीधे शिरकत किये।
हड़ताल का केन्द्र शिकागो था, जहाँ हड़ताल सबसे ज्यादा व्यापक थी, लेकिन पहली मई को कई और शहर इस मुहिम में जुड़ गये थे। न्यूयॉर्क, बाल्टीमोर, वाशिंगटन, मिलवाँकी, सिनसिनाटी, सेण्ट लुई, पिट्सबर्ग, डेट्रॉइट समेत अनेक शहरों में शानदार हड़ताल हुईं। इस आन्दोलन की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि इसने अकुशल और असंगठित मजदूरों को भी हड़ताल में खींच लिया था। यह कहा जा सकता है कि पहली मई को हड़ताल करने वाले मजदूरों को आधी सफलता मिली और जहाँ वे आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग नहीं मनवा सके, वहाँ भी वह काम के घण्टों में पर्याप्त कमी करवाने में सफल रहे।
शिकागो की हड़ताल और हे मार्केट की घटना
पहली मई को शिकागों में हड़ताल का रूप सबसे आक्रामक था। शिकागो उस समय जुझारू वामपन्थी मजदूर आन्दोलन का केन्द्र था। हालांकि वह आन्दोलन मजदूरों की समस्याओं पर पर्याप्त रूप से साफ राजनीतिक रुख नहीं रखता था, फिर भी यह एक लड़ाकू और जुझारू आन्दोलन था। वह मजदूरों का आन्दोलन में जुझारू भावना बढ़ाने के लिए, आह्वान करने को हमेशा तैयार रहता था, ताकि मजदूरों के जीवन की स्थितियों और काम करने की स्थितियों में सुधार लाया जा सके। चूँकि शिकागों की हड़ताल में कई जुझारू मजदूर दलों ने भाग लिया, इसलिए ऐसा माना गया कि शिकागों में हड़ताल सबसे बड़े पैमाने पर हुई एक ‘आठ-घण्टा एसोसिएशन’ काफी पहले ही इस हड़ताल की तैयारी के लिए बन गया था। वामपन्थी लेबर यूनियनों से बनी ‘सेण्ट्रल लेबर यूनियन’ ने ‘आठ घण्टा एसोसिएशन’ को पूरा सहयोग दिया, जो एक संयुक्त मोर्चा था, जिसमें फेडरेशन से लेकर ‘नाइट्स ऑफ लेबर’ और ‘सोशलिस्ट लेबर पार्टी’ तक शामिल थी। ‘सोशलिस्ट लेबर पार्टी’ अमेरिकी मजदूर वर्ग की पहली संगठित समाजवादी राजनीतिक पार्टी थी।
एक मई के हड़ताल से 2 दिन पहले रविवार को ‘सेण्ट्रल लेबर यूनियन’ ने तैयारी के लिये एक लामबन्दी प्रदर्शन किया जिसमें 25,000 मजदूरों ने हिस्सा लिया। एक मई को शिकागों में मजदूरों का एक विशाल सैलाब उमड़ा और संगठित मज़दूर आन्दोलन के आह्वान पर शहर के सारे औज़ार चलने बन्द हो गये और मशीने रुक गयी। मजदूर आन्दोलन को कभी भी वर्ग एकता के इतने शानदार और प्रभावी प्रदर्शन का एहसास नहीं हुआ था। उस समय आठ घण्टे के कार्य दिवस के महत्त्व ने और हड़ताल के चरित्र और विस्तार ने पूरे आन्दोलन को एक विशेष राजनीतिक अर्थ दे दिया। अगले कुछ दिनों में यह राजनीतिक अर्थ और भी गहरा होता गया। “काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन पहली मई, 1886 की हड़ताल में अपनी पराकाष्ठा पर था। और इसने अमेरिकी मजदूर वर्ग की लड़ाई के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया था।
इस दौरान मजदूर वर्ग के दुश्मन शासक वर्ग भी चुप नहीं बैठे रहे क्योंकि शिकागो में मजदूरों ने 1 मई को भारी संख्या में लामबंद होकर काम के घण्टे आठ को लेकर शासक वर्ग के खिलाफ आवाज उठाई और इस हड़ताल को अलग-अलग जगह पर प्रदर्शन जारी रखने का फैसला लिया गया और इधर शिकागों में मालिकों और प्रशासन की मिली-जुली शक्तियों ने, इन जुझारू मजदूर नेताओं को खत्म करने के लिए, और इसके ज़रिये शिकागो के समग्र मज़दूर आन्दोलन को रौंद डालने के लिए छटपटा रही थीं, जिसके फलस्वरूप 3 मई को ‘मैककार्मिक रीपर वर्क्स’ पर मजदूरों की एक सभा पर पुलिस ने बर्बर हमला किया। इस क्रूर और बर्बर हमले में छः मजदूर मारे गये और हजारों घायल हुए थे और सैकड़ो मजदूरों को जुलूस से गिरफ्तार कर लिया। मजदूरों ने 3 मई को ‘मैककार्मिक रीपर वर्क्स’ पर मजदूरों की सभा पर पुलिस के बर्बर हमले का विरोध करने के लिये 4 मई को हे मार्केट स्क्वायर पर हुए प्रदर्शन के लिये आह्वान किया गया। 4 मई को यह सभा जो शिकागो शहर के हे मार्केट स्क्वायर पर हो रही थी, ख़त्म होने ही वाला थी कि पुलिस ने मजदूरों की भीड़ पर हमला कर दिया। इसी बीच अचानक भीड़ में एक बम फेंका गया। इस हमले में चार मजदूर और सात पुलिसवाले मारे गये। जिसके बाद कई मजदूर और मजदूर नेताओं को इस बमकांड जो शासक वर्ग ने खुद करवाया था, इल्जाम लगाकर जेल में ठूंस दिया और इन पर झूठा मुकदमा चलाया गया। वंहा की न्यायालय ने हे मार्केट में हुई भयंकर रक्तपात का जिम्मेदार मजदूर नेताओं में पार्सन्स, स्पाइस, फिशर और एंजेल को फाँसी की सजा दी गयी इन चार शहीदों को 11 नवम्बर 1987 को फांसी पर चढ़ा दिया गया और सैमुअल फील्डेन, माइकेल श्राब, लुइस लिंग्ग, ऑस्कर नीबे मजदूर नेताओं सहित शिकागो के तमाम जुझारू मजदूरों को कठोर कारावास की सजा दी गयी। 3 और 4 मई की घटनाएँ जो ‘हे मार्केट काण्ड’ के नाम से जानी जाती हैं, साफ तौर पर 1 मई की हड़ताल का परिणाम थीं।
दुनियाभर के मजदूरों को आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनाेरंजन के अधिकार के लिए संघर्ष करने को प्रेरणा वाले मई दिवस के शहीदों का शासक वर्ग का अमानवीय व क्रूर दमन दिखाता है कि जब मजदूर एकजुट होता है तो वो किसी भी तरह के झूठ, फरेब का सहारा लेकर मजदूरों को मरवाते हैं, दबाते हैं। मई दिवस के शहीदों को मारने के पांच साल बाद उसी अदालत ने उन्हें बरी किया और कहा कि उनके खिलाफ सबूत अपर्याप्त थे। पर सबको सजा देने के बाद! गजब का न्याय हुवा इन मजदूरों के साथ।
शिकागों के मजदूर नेताओं को फाँसी के एक साल बाद फेडरेशन (जो अब “अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर’ के नाम से प्रसिद्ध हो चुका था) सेण्ट लूई के सम्मेलन में, 1888 में ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन को नये सिरे से जीवित करने का संकल्प लिया गया। एक मई को, जो अब एक परम्परा बन चुका था। 14 जुलाई 1989 को बास्तीय के पतन की सौवीं सालगिरह पर, पेरिस में इंटरनेशनल वर्किंगमेन एसोसिएशन, जिसे फर्स्ट इंटरनेशनल के नाम से जाना जाता है, जिसकी स्थापना 25 साल पहले कम्युनिस्टों के महान शिक्षक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स की अगुवाई में 1864 में लंदन में सभी समाजवादी और कम्युनिस्ट संगठनों के लिए एक संगठन के रूप में हुआ था। 1876 में कुछ वैचारिक मतभेदों के चलते फर्स्ट इंटरनेशनल के भंग हो गया और अब पेरिस में सभी कम्युनिस्ट नेता मिलकर पुनर्गठित किया जिसका नाम दिया गया सेकेंड इंटरनेशनल।
इस पेरिस कांग्रेस बैठक में आये तमाम प्रतिनिधियों ने मिलकर आपसी सहमति से एक प्रस्ताव पास किया- “कांग्रेस एक विशाल अंतर्राष्टीय प्रदर्शन आयोजित करने का निर्णय लेती है ताकि एक विशेष दिन, सभी देशों में और सभी शहरों में मेहनतकश जनसमुदाय राजकीय अधिकारियों से कार्य-दिवस कानूनी तौर पर घटाकर आठ घण्टे करने की तथा पेरिस कांग्रेस के अन्य निर्णयों को लागू करने की मांग करे, चूंकि ‘अमेरिकन फेडरेशन आफ लेबर’ ने दिसंबर 1988 में अपने सेण्ट लुई सम्मेलन में, पहले ही ऐसे प्रदर्शनों के लिये 1 मई 1890 का दिन तय किया गया था, इसलिये इस दिन को अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन के लिये स्वीकार किया जाता है। विभिन्न देश के मजदूरों को अपने देश में मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार इस प्रदर्शन को जरूर आयोजित करना चाहिये।”
14 जुलाई 1989 को 1 मई को मजदूर दिवस मनाने की घोषणा के बाद 1 मई 1890 को मई दिवस यानी मजदूर दिवस के रूप में कई देशों में और यूरोप के लगभग सभी देशों में मनाया गया। अधिकतर जगह इस 1 मई 1890 को हो रहे प्रदर्शनों को शासक वर्ग द्वारा दमन का प्रयास भी किया गया और इसको लेकर दमन की चेतावनी भी दी गयी थी इसके बावजूद अमेरिका सहित दूसरे यूरोपीय राजधानियों में भी जमकर हड़ताल कर प्रदर्शन हुवे। अमेरिका के शिकागो और न्यूयार्क शहरों में हुवे प्रदर्शनों का विशेष महत्व था और कई हजार लोगों ने आठ घण्टे कार्य दिवस की मांग को लेकर सड़कों पर जुलूस निकाला और ये प्रदर्शन शहर के मुख्य केंद्रों पर खुली सभाओं के साथ खत्म हुवे।
इस घटना के पांच साल बाद, अमेरिकी राष्ट्रपति ग्रोवर क्लीवलैंड, श्रमिक दिवस यानी लेबर डे के समाजवादी मूल से असहज, मजदूर दिवस बनाने के लिए कानून पर हस्ताक्षर किया।
मजदूर दिवस का अवकाश सबसे पहले सोवियत संघ (USSR), ने मजदूर दिवस को अवकाश के रूप में घोषित कर और देशों के सामने प्रेरणा दिया। सोवियत संघ ने मजदूर दिवस को एक राष्ट्रीय पर्व की तरह मानना शुरू किया जिसमें हाई-प्रोफाइल परेड शामिल थे, जिसमें मॉस्को के रेड स्क्वायर में एक शीर्ष सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी के पदाधिकारियों की अध्यक्षता में, कार्यकर्ता का जश्न मनाते हुए और सोवियत सैन्य शक्ति का प्रदर्शन किया गया था। सोवियत संघ के बाद जर्मनी ने और इसी तरह धीरे-धीरे तकरीबन 80 देशों में 1 मई को मजदूर दिवस की छुट्टी घोषित किया।
इस तरह से इन्ही संघर्ष के प्रेरणास्रोत शहीद मजदूरों की याद में 1 मई को प्रतिवर्ष अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है और तभी से हम 1 मई को मजदूर वर्ग की शानदार शहादतों से भरे हुए इतिहास को याद करते हैं।
शिकागो के आठ शहीद कामरेड मजदूर नेता जिनके संघर्ष और कुर्बानियों के बदौलत आज सभी देशों में काम के 8 घण्टे निर्धारित किये गये हैं।
(1) अल्बर्ट पार्सन्स, जन्म: 20 जून 1848, मृत्यु: 11 नवम्बर 1887 को फांसी पेशा: प्रिंटिंग प्रेस का मजदूर
“हमारी मौत दीवार पर लिखी ऐसी इबारत बन जायेगी जो नफरत, बैर, ढोंग, पखण्ड, अदालत के हाथों होने वाली हत्या, अत्याचार और इन्सान के हाथों इन्सान की गुलामी के अन्त की भविष्यवाणी करेगी। दुनियाभर के दबे-कुचले लोग अपनी कानूनी बेड़ियों में कसमसा रहे हैं। विराट मजदूर वर्ग जाग रहा है। गहरी नींद से जागी हुई जनता अपनी जंजीरों को इस तरह तोड़ फेंकेगी जैसे तूफान में नरकुल टूट जाते हैं।”- अल्बर्ट पार्सन्स
(2) आगस्ट स्पाइस, जन्म: 10 दिसम्बर 1855, मृत्यु: 11 नवम्बर 1887 को फाँसी, पेशा: फर्नीचर कारीगर
“एक दिन आयेगा जब हमारी खामोशी उन आवाजों से ज्यादा ताकतवर साबित होगी जिनका तुम आज गला घोंट रहे हो।”- आगस्ट स्पाइस
(3) एडॉल्फ़ फिशर, जन्म 1858, मृत्यु 11 नवम्बर 1887 को फाँसी, पेशा: प्रिण्टिंग प्रेस का मज़दूर
“वह इंसानियत की मुक्ति के लिए अपनी जान की कुर्बानी देने की इच्छा रखता था और उसे उम्मीद थी कि ऐसा ही होगा। उसे मजदूर वर्ग की हालत में थोड़े बहुत सुधार करने वाले उपायों पर जरा भी भरोसा नहीं था।”- विलियम होल्म्स
(4) जॉर्ज एंजिल, जन्म : 15 अप्रैल 1836, मृत्यु: 11 नवम्बर 1887 को फाँसी, पेशा: खिलौने बेचने वाला
“एंजिल मजदूर वर्ग के संघर्ष का एक बहादुर सिपाही था। वह मेहनतकशों की मुक्ति के लक्ष्य के लिए जी-जान लड़ा देने वाला बागी था।”- ऑस्कर नीबे
(5) सैमुअल फील्डेन, जन्म: 25 फ़रवरी 1847, मृत्यु: 7 फ़रवरी 1922, पेशा: सामानों की ढुलाई करनेवाला मजदूर
“लिखने-पढ़ने वालों के बीच से अगर कोई क्रान्तिकारी बन जाये तो आम तौर पर इसे गुनाह नहीं माना जाता, लेकिन अगर कोई गरीब मजदूर क्रान्तिकारी बन जाये तो यह भयंकर गुनाह हो जाता है।”- सैमुअल फील्डेन
(6) माइकेल श्राब, जन्म: 9 अगस्त 1853, मृत्यु: 29 जून 1898 , पेशा: बुकबाइण्डर
“मैं जानता हूँ कि हमारे सपने इस साल या अगले साल पूरे होने वाले नहीं है, लेकिन मैं जानता हूँ कि आने वाले समय में एक-न-एक दिन वे जरूर पूरे होंगे”- माइकेल श्राब
(7) लुइस लिंग्ग , जन्म: 9 सितम्बर 1864, मृत्यु: 10 नवम्बर 1887 (जेल की कोठरी में आत्महत्या) पेशा: बढ़ई
“मजदूरों को ताकत के दम पर दबाकर रखा जाता है और इसका जवाब भी ताकत से ही दिया जाना चाहिए।”- लुइस लिंग्ग
(8) ऑस्कर नीबे, जन्म: 12 जुलाई 1850, मृत्यु: 22 अप्रैल 1916, पेशा: खमीर बेचनेवाली एक दुकान में भागीदारी
“नीबे एक मजदूर संगठनकर्ता था, दिल का साफ और सरल। वह लोगों को इकठ्ठा करने और उन्हें संघर्ष के लिए एकजुट करने में माहिर था। वह मजदूरों को शिक्षित करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए बहुत ही मददगार था।”- लिज्जी होम्स